Mati Wali class 9 | माटी वाली |



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पाठ -4

माटी वाली 




ध्वनि प्रस्तुति







माटी वाली – Mati Wali

सारांश : Summary



टिहरी में भागीरथी नदी पर बहुत बड़ा बाँध बना है जिसमें पूरा टिहरी शहर और उसके आस-पास के अनेक गाँव डूब गए. पहले जो लोग अपने घरों और  व्यापारों से जुड़े थे उनके सामने अचानक विस्थापित होने का संकट उपस्थित हो गया .'माटी वाली' ( Mati Wali ) कहानी भी इसी विस्थापन ( Displacement) की समस्या से जुड़ी है।

बूढ़ी ‘माटी वाली ‘ पूरे टिहरी शहर में घर-घर लाल मिट्टी बाँटती है और उसी से उसका जीवन चलता है घरो में लिपाई-पुताई में लाल मिट्टी काम आती है. एक पुराने कपड़े की गोल गद्दी सिर पर रखकर उस पर मिट्टी का कनस्तर रखे हुए वह घर-घर जाकर मिट्टी बेचती है ,उसे सारे शहर के लोग माटी वाली के नाम से ही जानते हैं. एक दिन माटी वाली मिट्टी बेचकर एक घर में पहुँचती है तो मकान मालकिन  उसे दो रोटियाँ देती है . माटी वाली उसमें से एक रोटी अपने सिर पर रखे गंदे कपड़े से बाँध लेती है तब तक मालकिन चाय लेकर आती है . पीतल के पुराने गिलास में माटी वाली फूँक-फूँक  कर चाय सुड़कने लगती है . माटी वाली कहती है कि पूरे बाज़ार में अब किसी के पास ऐसी पुरानी चीजें नहीं रह गई हैं जिस पर मालकिन ने कहा की यह पुरखों  की चीज़े हैं, न जाने किन कष्टों के साथ इन्हे खरीदा गया होगा . अब लोग इनकी  कदर नहीं करते हैं . अपनी चीज़ का मोह बहुत बुरा होता है और टिहरी का मोह भी ऐसा ही है.

माटी वाली कहती है कि जिनके पास ज़मीन या कोई संपत्ति है उन्हें कोई ठिकाना मिल ही जाता है लेकिन माटी वाली जैसे बेघर–मजदूरों का क्या होगा ? माटी वाली उस दिन दो-तीन घरों में मिट्टी पहुँचाकर तीन रोटी बांधकर अपने बुड्ढे पति के लिए लायी थी. वह बुड्ढा रोज़ इसी आस में बैठा रहता था . आज वह उसके लिए प्याज भी खरीद लायी थी यह सोच कर कि कूटकर रोटी के साथ दे देगी , घर पहुंची तो पाया की बूढ़ा  मर चुका है.

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शब्दार्थ 


  • सेमल का तप्पड़ - एक मोहल्ले का नाम
  • खोली- छोटा कमरा
  • धरा- रखा हुआ
  • कंटर- कनस्तर,पीपा
  • कुल- सारे, सभी
  • निवासी- रहने वाले
  • प्रतिद्वंद्वी- मुकाबला करने वाला
  • जुटाना- इकट्ठा करना
  • गोबरी लिपाई- गोबर से की गई पुताई
  • माटाखान- जहां से मिट्टी खोदी जाती है
  • भिलांगना- एक नदी का नाम
  • ग्राहक- खरीदने वाला
  • हरिजन- जाति से संबंधित शब्द
  • डिल्ला- सिर पर बोझ के नीचे रखने के लिए कपड़े की बनाई हुई गद्दी
  • छूलबुल- पूरी तरह भरा हुआ
  • उड़ेल देना- गिरा देना
  • भाग्यवान- किस्मत वाली
  • टैम - समय
  • धरे- रखे
  • हड़बड़ी -जल्दबाजी
  • इकहरा - एक परत का
  • प्रकट हुआ -दिखाई देना
  • थामी - पकड़ी हुई
  • दिखावा -प्रदर्शन
  • सद्दा - ताजी
  • साग -सब्जी
  • निगल जा -खा लो
  • छोर -किनारा
  • सुडकना - सुड़-सुड़ की आवाज करते हुए चाय पीना
  • खरीददार -खरीदने वाला
  • पुरखे - पूर्वज
  • हरम के भाव -बहुत कम दाम पर
  • दिल गवाही देना -इच्छा होना
  • तंगी -गरीबी, कमी, अभाव
  • मन मसोसना -इच्छा होते हुए भी पूरी न कर पाना
  • दिमाग चकराना -परेशान हो जाना
  • कांसा -मिश्र धातु (तांबा+टिन)
  • पागल होना -परेशान होना
  • जायदाद- संपत्ति
  • अशक्त -लाचार ,शक्तिहीन
  • हवाले करना -दे देना
  • चेहरा खिल जाना- प्रसन्न हो जाना
  • विभिन्न -अनेक, कई
  • एवज -बदले में
  • बेगार करना -बिना मजदूरी लिए काम करना
  • कोरी - सूखी ,बिना साग सब्जी के
  • आमदनी -कमाई
  • परोसना - खाने के लिए थाली आदि में रख कर देना
  • हद से हद- ज्यादा से ज्यादा
  • आहट -आवाज
  • माटी -शरीर
  • पुनर्वास -दोबारा बसाना
  • जिनगी -जिंदगी
  • तय करना -निश्चित करना
  • आपाधापी मचना -अफरा-तफरी मचना, हर काम जल्दी में करने का प्रयास करना
  • श्मशान घाट- जहाँ लाशें जलाई या दफनाई जाती हैं
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    माटी वाली प्रश्न-उत्तर

    Mati Wali Question and Answer



    प्रश्न 1: ‘शहरवासी सिर्फ़ माटी वाली को नहीं, उसके कंटर को भी अच्छी तरह पहचानते हैं।’ आपकी समझ से वे कौन से कारण रहे होंगे जिनके रहते ‘माटी वाली’ को सब पहचानते थे?
    उत्तर : माटी वाली एक बूढ़ी औरत थी जो कनस्तर में लाल मिट्टी भरकर शहर में घर-घर दिया करती थी .वह माटाखान से मिट्टी लाती थी इसी मिट्टी को बेचकर वह अपना जीवन यापन करती थी. टिहरी के लोग माटी वाली को ही नहीं बल्कि उसके कनस्तर को भी अच्छी तरह पहचानते थे .इसके निम्नलिखित कारण हो सकते हैं-

    • माटी वाली की लाल मिट्टी हर घर की आवश्यकता थी जिससे चूल्हे-चौके की पुताई की जाती थी .इसके बिना किसी का काम नहीं चलता था.
    • मिट्टी देने का यह काम उसके अलावा कोई और नहीं करता था. उसका कोई प्रतिद्वंदी नहीं था.
    • शहर से माटाखान काफी दूर था इसलिए लोग अपने आप मिट्टी नहीं ला सकते थे.
    • शहर की रेतीली मिट्टी से लिपाई का काम नहीं किया जा सकता था.
    • माटी वाली हंसमुख स्वभाव की महिला थी जो सभी से अच्छी तरह बातें करती थी.
    • बहुत समय से माटी बेचने के कारण माटी वाली से सभी लोगों का भावनात्मक लगाव हो गया था.



    प्रश्न 2:माटी वाली के पास अपने अच्छे या बुरे भाग्य के बारे में ज़्यादा सोचने का समय क्यों नहीं था?
    उत्तर : पूरे टिहरी शहर को सिर्फ़ वही माटी देती आ रही थी। उसका घर शहर से दूर था जिस कारण वह प्रात:काल निकल जाती थी। वहाँ पूरा दिन माटीखान से माटी खोदती व शहर में विभिन्न स्थानों में फैले घरों तक माटी को पहुँचाती थी। माटी ढोते-ढोते उसे रात हो जाती थी। इसी कारण उसके पास समय नहीं था कि अपने अच्छे या बुरे भाग्य के विषय में सोच पाती अर्थात् उसके पास समय की कमी थी जो उसे सोचने का भी वक्त नहीं देती थी।



    प्रश्न 3:‘भूख मीठी कि भोजन मीठा’ से क्या अभिप्राय है?
    उत्तर : इस बात का आशय है जब मनुष्य भूखा होता है तो उस भूख के कारण उसे बासी रोटी भी मीठी लगती है। यदि मनुष्य को भूख न हो तो उसे कुछ भी स्वादिष्ट भोजन या खाने की वस्तु दे दी जाए तो वह उसमें नुक्स निकाल ही देता है। परन्तु भूख लगने पर साधारण खाना या बासी खाना भी उसे स्वादिष्ट व मीठा लगेगा। इसलिए बुजुर्गों ने कहा है – भूख मीठी की भोजन मीठा। अर्थात् भूख स्वयं में ही मिठास होती है जो भोजन में भी मिठास उत्पन्न कर देती है।



    प्रश्न 4: ‘पुरखों की गाढ़ी कमाई से हासिल की गई चीज़ों को हराम के भाव बेचने को मेरा दिल गवाही नहीं देता।’ – मालकिन के इस कथन के आलोक में विरासत के बारे में अपने विचार व्यक्त कीजिए।
    उत्तर : इसमें मालकिन द्वारा अपने पुरखों की मेहनत के प्रति आदर व सम्मान का भाव व्यक्त किया गया है। वह अपने पुरखों की परिस्थितियों को समझने की पूरी कोशिश करती है कि उन्होंने किन परिस्थितियों में संघर्ष कर घर की ये चीज़ें बनाई है। इसलिए वह उस संघर्ष के प्रति सम्मान भाव रखते हुए उन्हें यूंही बेच देना नहीं चाहती।
    मालकिन की ये बात काबिल-ए-तारीफ है। हम कभी ये नहीं समझ पाते की हमारे बुजुर्गों ने कितनी कड़ी मेहनत से हमारे लिए ये सब अर्जित किया होगा पर हम समय के साथ चलते हुए उनका अनादर करते हुए उन्हें बेच देते हैं या फिर नष्ट कर देते हैं। उनकी भावनाओं का तनिक भी ध्यान नहीं रखते। हमें चाहिए कि हम अपनी पीढ़ियों से चली आ रही इन विरासतों का पूरे सम्मान व आदर भाव से ध्यान रखें व दूसरों को भी यही सीख दें।



    प्रश्न 5: माटी वाली का रोटियों का इस तरह हिसाब लगाना उसकी किस मजबूरी को प्रकट करता है?
    उत्तर : यहाँ माटी वाली की दरिद्रता का पता चलता है। इतनी कड़ी मेहनत के बावजूद वह अपने व अपने पति के लिए दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा पाती। लोगों द्वारा रोटी दिए जाने पर वह पूरा हिसाब लगा लेती है। ताकि वह दोनों के खाने का प्रबन्ध कर सके। फिर चाहे वह आधा पेट ही भोजन क्यों न हो।



    प्रश्न 6: आज माटी वाली बुड्ढे को कोरी रोटियाँ नहीं देगी – इस कथन के आधार पर माटी वाली के हृदय के भावों को अपने शब्दों में लिखिए।
    उत्तर : माटी वाली का उसके पति के अलावा अन्य कोई नहीं है। दूसरे उसका पति अत्याधिक वृद्ध होने के कारण बीमारियों से ग्रस्त है, उसका लीवर खराब होने के कारण उसका पाचनतंत्र भी भली-भाँति से काम नहीं करता है। इसलिए वह निर्णय लेती है कि वह बाज़ार से प्याज लेकर जायेगी व रोटी को रुखा देने के बजाए उसको प्याज की सब्जी बनाकर रोटी के साथ देगी इससे उसका असीम प्रेम झलकता है कि वह उसका इतना ध्यान रखती है कि उसे रुखी रोटियाँ नहीं देना चाहती।



    प्रश्न 7: ‘गरीब आदमी का शमशान नहीं उजड़ना चाहिए।’ इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
    उत्तर : यह वाक्य टिहरी बाँध के समय में उजड़े हुए लोगों की व्यथा को माटी वाली के माध्यम से व्यक्त किया गया है कि गरीब आदमी का श्मशान नही उजड़ना चाहिए। गरीबों को रहने का स्थान ही बड़ी मुश्किल से मिलता है उसी स्थान पर वह जीते हैं व मर जाते हैं और वह भी डूब जाए तो उनके मरने व जीने का स्थान भी नहीं बचेगा। इसलिए बूढ़ी अपनी वेदना को प्रकट कर इस बात को कहती है।



    प्रश्न 8: ‘विस्थापन की समस्या’ पर एक अनुच्छेद लिखिए।
    उत्तर : भारत जिस रफ्तार से ‘विकास’ और आर्थिक लाभ की दौड़ में आगे बढ़ रहा है उसी भागमभाग में शहरों और गाँवों में हाशिए पर रह रहे लोगों को विस्थापन (स्थान छोड़ने ) की  समस्या को झेलना पड़ रहा है और जो भी थोड़ा बहुत सामान या अन्य वस्तु उनके पास हैं वो सब उनसे छिन जाती  है। बिजली व पानी आदि अन्य समस्याओं से जूझने के लिए नदियों पर बनाए गए बाँध द्वारा उत्पन्न विस्थापन सबसे बड़ी समस्या बनकर सामने आई है। सरकार उनकी ज़मीन और रोजी रोटी तो छीन लेती है पर उन्हें विस्थापित करने के नाम पर अपने कर्त्तव्यों से अलग हट जाते हैं। कुछ करते भी हैं तो वह लोगों के घावों पर छिड़के नमक से ज़्यादा कुछ नहीं होता। भारत की अदालतों ने भी इस पर चिंता जताई है। इसके कारण जनता में आक्रोश की भावना ने जन्म लिया है। टिहरी बाँध इस बात का ज्वलंत उदाहरण है। लोग पुराने टिहरी को नहीं छोड़ना चाहते थे। इसके लिए कितने ही विरोध हुए, जूलूस निकाले गए पर सरकार के दबाव के कारण उन्हें नए टिहरी में विस्थापित होना पड़ा। अपने पूर्वजों की उस विरासत को छोड़कर जाने में उन्हें किस दु:ख से गुजरना पड़ा होगा उस वेदना को वही जानते हैं। सरकार को चाहिए कि इस विषय में गंभीरता से सोचे व विस्थापन की स्थिति न आए ऐसे कार्य करने चाहिए।


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    कृतिका-1 पाठ-4 

    माटी वाली

    विद्यासागर नौटियाल




    शहर के सेमल का तप्पड़ मोहल्ले की ओर बने आखिरी घर की खोली में पहुँचकर उसने दोनों हाथों की मदद से अपने सिर पर धरा बोझा नीचे उतारा। मिट्टी से भरा एक कंटर‘। माटी वाली। टिहरी शहर में शायद ऐसा कोई घर नहीं होगा जिसे वह न जानती हो या जहाँ उसे न जानते हों, घर के कुल निवासी, बरसों से वहाँ रहते आ रहे किराएदार, उनके बच्चे तलक। घर–घर में लाल मिट्टी देते रहने के उस काम को करने वाली वह अकेली है। उसका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं। उसके बगैर तो लगता है, टिहरी शहर के कई एक घरों में चूल्हों का जलना तक मुश्किल हो जाएगा। वह न रहे तो लोगों के सामने रसोई और भोजन कर लेने के बाद अपने चूल्हे–चौके की लिपाई करने की समस्या पैदा हो जाएगी। भोजन जुटाने और खाने की तरह रोज़ की एक समस्या। घर में साफ़, लाल मिट्टी तो हर हालत में मौजूद रहनी चाहिए। चूल्हे–चौकों को लीपने के अलावा साल–दो साल में मकान के कमरों, दीवारों की गोबरी–लिपाई करने के लिए भी लाल माटी की ज़रूरत पड़ती रहती है। शहर के अंदर कहीं माटाखान है नहीं। भागीरथी और भीलांगना, दो नदियों के तटों पर बसे हुए शहर की मिट्टी इस कदर रेतीली है कि उससे चूल्हों की लिपाई का काम नहीं किया जा सकता। आने वाले नए–नए किराएदार भी एक बार अपने घर के आँगन में उसे देख लेते हैं तो अपने आप माटी वाली के ग्राहक बन जाते हैं। घर–घर जाकर माटी बेचने वाली नाटे कद की एक हरिजन बुढ़िया–माटी वाली।



    शहरवासी सिर्फ माटी वाली को नहीं, उसके कंटर को भी अच्छी तरह पहचानते हैं। रद्दी कपड़े को मोड़कर बनाए गए एक गोल डिल्ले‘ के ऊपर लाल, चिकनी मिट्टी से छुलबुल भरा कनस्तर टिका रहता है। उसके ऊपर किसी ने कभी कोई ढक्कन लगा हुआ नहीं देखा। अपने कंटर को इस्तेमाल में लाने से पहले वह उसके ऊपरी ढक्कन को काटकर निकाल फेंकती है। ढक्कन के न रहने पर कंटर के अंदर मिट्टी भरने और फिर उसे खाली करने में आसानी रहती है। उसके कंटर को ज़मीन पर रखते–रखते सामने के घर से नौ–दस साल की एक छोटी लड़की कामिनी दौड़ती हुई वहाँ पहुँची और उसके सामने खड़ी हो गई।


    “मेरी माँ ने कहा है, ज़रा हमारे यहाँ भी आ जाना।”
    “अभी आती हूँ।”

    घर की मालकिन ने माटी वाली को अपने कंटर की माटी कच्चे आँगन के एक कोने पर उड़ेल देने को कह दिया।


    “तू बहुत भाग्यवान है। चाय के टैम पर आई है हमारे घर। भाग्यवान आए खाते वक्त।”

    वह अपनी रसोई में गई और दो रोटियाँ लेती आई। रोटियाँ उसे सौंपकर वह फिर अपनी रसोई में घुस गई।

    माटी वाली के पास अपने अच्छे या बुरे भाग्य के बारे में ज्यादा सोचने का वक्त नहीं था। घर की मालकिन के अंदर जाते ही माटी वाली ने इधर–उधर तेज़ निगाहें दौड़ाईं। हाँ, इस वक्त वह अकेली थी। उसे कोई देख नहीं रहा था। उसने फ़ौरन अपने सिर पर धरे डिल्ले के कपड़े के मोड़ों को हड़बड़ी में एक झटके में खोला और उसे सीधा कर दिया। फिर इकहरा। खुल जाने के बाद वह एक पुरानी चादर के एक फटे हुए कपड़े के रूप में प्रकट हुआ।



    मालकिन के बाहर आँगन में निकलने से पहले उसने चुपके से अपने हाथ में थामी दो रोटियों में से एक रोटी को मोड़ा और उसे कपड़े पर लपेटकर गाँठ बाँध दी। साथ ही अपना मुँह यों ही चलाकर खाने का दिखावा करने लगी। घर की मालकिन पीतल के एक गिलास में चाय लेकर लौटी। उसने वह गिलास बुढ़िया के पास ज़मीन पर रख दिया।

    “ले, सद्दा–बासी साग कुछ है नहीं अभी। इसी चाय के साथ निगल जा।”

    माटी वाली ने खुले कपड़े के एक छोर से पूरी गोलाई में पकड़कर पीतल का वह गरम गिलास हाथ में उठा लिया। अपने होंठों से गिलास के किनारे को छुआने से पहले, शुरू–शुरू में उसने उसके अंदर रखी गरम चाय को ठंडा करने के लिए सू–सू करके, उस पर लंबी–लंबी फूंकें मारी। तब रोटी के टुकड़ों को चबाते हुए धीरे–धीरे चाय सुड़कने लगी।

    “चाय तो बहुत अच्छा साग हो जाती है ठकुराइनजी।”

    “भूख तो अपने में एक साग होती है बुढ़िया। भूख मीठी कि भोजन मीठा?”

    “तुमने अभी तक पीतल के गिलास सँभालकर रखे हैं। पूरे बाजार में और किसी घर में अब नहीं मिल सकते ये गिलास।”

    “इनके खरीदार कई बार हमारे घर के चक्कर काटकर लौट गए। पुरखों की गाढ़ी कमाई से हासिल की गई चीज़ों को हराम के भाव बेचने को मेरा दिल गवाही नहीं देता। हमें क्या मालुम कैसी तंगी के दिनों में अपनी जीभ पर कोई स्वादिष्ट, चटपटी चीज़ रखने के बजाय मन मसोसकर दो–दो पैसे जमा करते रहने के बाद खरीदी होंगी उन्होंने ये तमाम चीजें, जिनकी हमारे लोगों की नज़रों में अब कोई कीमत नहीं रह गई है। बाजार में जाकर पीतल का भाव पूछो ज़रा, दाम सुनकर दिमाग चकराने लगता है। और ये व्यापारी हमारे घरों से हराम के भाव इकट्ठा कर ले जाते हैं, तमाम बर्तन–भाँडे। काँसे के बरतन भी गायब हो गए हैं, सब घरों से।”


    “इतनी लंबी बात नहीं सोचते बाकी लोग। अब जिस घर में जाओ वहाँ या तो स्टील के भाँडे दिखाई देते हैं या फिर काँच और चीनी मिट्टी के।”

    “अपनी चीज़ का मोह बहुत बुरा होता है। मैं तो सोचकर पागल हो जाती हूँ कि अब इस उमर में इस शहर को छोड़कर हम जाएँगे कहाँ!” ।

    “ठकुराइन जी, जो ज़मीन–जायदादों के मालिक हैं, वे तो कहीं न कहीं ठिकाने पर जाएँगे ही। पर मैं सोचती हूँ मेरा क्या होगा! मेरी तरफ़ देखने वाला तो कोई भी नहीं।”


    चाय खत्म कर माटी वाली ने एक हाथ में अपना कपड़ा उठाया, दूसरे में खाली कंटर और खोली से बाहर निकलकर सामने के घर में चली गई।


    उस घर में भी ‘कल हर हालत में मिट्टी ले आने के आदेश के साथ उसे दो रोटियाँ मिल गईं। उन्हें भी उसने अपने कपड़े के एक दूसरे छोर में बाँध लिया। लोग जानें तो जानें कि वह ये रोटियाँ अपने बुड्ढे के लिए ले जा रही है। उसके घर पहुँचते ही अशक्त बुड्डा कातर नज़रों से उसकी ओर देखने लगता है। वह घर में रसोई बनने का इंतज़ार करने लगता है। आज वह घर पहुँचते ही तीन रोटियाँ अपने बुड्ढे के हवाले कर देगी। रोटियों को देखते ही चेहरा खिल उठेगा बुड्ढे का।


    साथ में ऐसा भी बोल देगी, “साग तो कुछ है नहीं अभी।” ।

    और तब उसे जवाब सुनाई देगा, “भूख मीठी कि भोजन मीठा?”

    उसका गाँव शहर के इतना पास भी नहीं है। कितना ही तेज़ चलो फिर भी घर पहुँचने में एक घंटा तो लग ही जाता है। रोज़ सुबह निकल जाती है वह अपने घर से। पूरा दिन माटाखान में मिट्टी खोदने, फिर विभिन्न स्थानों में फैले घरों तक उसे ढोने में बीत जाता है। घर पहुँचने से पहले रात घिरने लगती है। उसके पास अपना कोई खेत नहीं। ज़मीन का एक भी टुकड़ा नहीं। झोंपड़ी, जिसमें वह गुज़ारा करती है, गाँव के एक ठाकुर की ज़मीन पर खड़ी है। उसकी ज़मीन पर रहने की एवज़ में उस भले आदमी के घर पर भी माटी वाली को कई तरह के कामों की बेगार करनी होती है।

    नहीं, आज वह एक गठरी में बदल गए अपने बुड्डे को कोरी रोटियाँ नहीं देगी। माटी बेचने से हुई आमदनी से उसने एक पाव प्याज खरीद लिया। प्याज़ को कूटकर वह उन्हें जल्दी–जल्दी तल लेगी। बुड्डे को पहले रोटियाँ दिखाएगी ही नहीं। सब्जी तैयार होते ही परोस देगी उसके सामने दो रोटियाँ। अब वह दो रोटियाँ भी नहीं खा सकता। एक ही रोटी खा पाएगा या हद से हद डेढ़। अब उसे ज्यादा नहीं पचता। बाकी बची डेढ़ रोटियों से माटी वाली अपना काम चला लेगी। एक रोटी तो उसके पेट में पहले ही जमा हो चुकी है। मन में यह सब सोचती, हिसाब लगाती हुई वह अपने घर पहुँच गई।


    उसके बुड्ढे को अब रोटी की कोई जरूरत नहीं रह गई थी। माटी वाली के पाँवों की आहट सुनकर हमेशा की तरह आज वह चौंका नहीं। उसने अपनी नजरें उसकी ओर नहीं घुमाईं। घबराई हुई माटी वाली ने उसे छूकर देखा। वह अपनी माटी को छोड़कर जा चुका था।

    टिहरी बाँध पुनर्वास के साहब ने उससे पूछा कि वह रहती कहाँ है।

    “तुम तहसील से अपने घर का प्रमाणपत्र ले आना।”

    “मेरी जिनगी तो इस शहर के तमाम घरों में माटी देते गुजर गई साब।”

    “माटी कहाँ से लाती हो?”

    “माटाखान से लाती हूँ माटी।”

    “वह माटाखान चढ़ी है तेरे नाम? अगर है तो हम तेरा नाम लिख देते हैं।”

    “माटाखान तो मेरी रोज़ी है साहब।“

    “बुढ़िया हमें ज़मीन का कागज़ चाहिए, रोज़ी का नहीं।”

    “बाँध बनने के बाद मैं क्या खाऊँगी साब?”


    “इस बात का फैसला तो हम नहीं कर सकते। वह बात तो तुझे खुद ही तय करनी पड़ेगी।”

    टिहरी बाँध की दो सुरंगों को बंद कर दिया गया है। शहर में पानी भरने लगा है। शहर में आपाधापी मची है। शहरवासी अपने घरों को छोड़कर वहाँ से भागने लगे हैं। पानी भर जाने से सबसे पहले कुल श्मशान घाट डूब गए हैं।

    माटी वाली अपनी झोपड़ी के बाहर बैठी है। गाँव के हर आने–जाने वाले से एक ही बात कहती जा रही है-“गरीब आदमी का श्मशान नहीं उजड़ना चाहिए।“


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