Vakh Class 9 | वाख class -9

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पाठ -10

वाख




ध्वनि प्रस्तुति





1.
रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव ।
जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार।
पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे।
जी में उठती रह-रह हूक, घर जाने की चाह है घेरे।।



2.
खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी।
सम खा तभी होगा समभावी,
खुलेगी साँकल बंद द्वार की।



3.
आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह!
जेब टटोली, कौड़ी न पाई।
माझी को दूँ, क्या उतराई?


4.
थल-थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां।
ज्ञानी है तो स्वयं को जान,
वही है साहिब से पहचान।




शब्दार्थ



  • नाव-शरीर रूपी नाव ।
  • देव-प्रभु, ईश्वर।
  • भवसागर-संसार रूपी सागर ।
  • कच्चे सकोरे-मिट्टी का बना छोटा पात्र जिसे पकाया नहीं गया है। 
  • हूक-तड़प, वेदना। 
  • चाह-चाहत, इच्छा। 
  • अहंकारी-अभिमानी, घमंडी। 
  • सम-इंद्रियों का शमन। 
  • समभावी-समानता की भावना। 
  • साँकल-जंजीर। 
  • राह-रास्ता। 
  • सुषुम-सुषुम्ना नामक नाड़ी। 
  • टटोली-खोजा। 
  • कौड़ी न पाई-कुछ भी न मिला। 
  • माँझी-नाविक (प्रभु)। 
  • उतराई-पार उतारने का किराया। 
  • थल -जमीन, स्थान। 
  • शिव-प्रभु। 
  • साहिब-ईश्वर।





भावार्थ



रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव ।
जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार।
पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे।
जी में उठती रह-रह हूक, घर जाने की चाह है घेरे।।

कवयित्री कहती है कि वह अपने साँसों की कच्ची रस्सी की सहायता से इस शरीर-रूपी नाव को खींच रही हैं । पता नहीं ईश्वर मेरी पुकार सुनकर मुझे भवसागर से कब पार करेंगे? जिस प्रकार कच्ची मिट्टी से बने पात्र से पानी टपक-टपककर कम होता रहता है, उसी तरह समय बीतता जा रहा है और प्रभु को पाने के मेरे प्रयास व्यर्थ सिद्ध हो रहे हैं। कवयित्री के मन में बार-बार एक ही पीड़ा उठती है कि कब यह नश्वर संसार छोड़कर प्रभु के पास पहुँच जाएँ  और सांसारिक कष्टों से मुक्ति पा सकें ।


खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी।
सम खा तभी होगा समभावी,
खुलेगी साँकल बंद द्वार की।


कवयित्री मनुष्य को मध्यम मार्ग को अपनाने की सीख देती हुई कहती है  कि हे मनुष्य! तुम इन संसार की भोग विलासिताओं में डूबे रहते हो, इससे तुम्हें कुछ प्राप्त होने वाला नहीं है। तुम इस भोग के खिलाफ यदि त्याग, तपस्या का जीवन अपनाओगे तो मन में अहंकार ही बढ़ेगा। तुम इनके बीच का मध्यम मार्ग अपनाओ। भोग-त्याग, सुख-दुख के मध्य का मार्ग अपनाने से ही प्रभु-प्राप्ति का बंद द्वार खुलेगा और ईश्वर से मिलन होगा।


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आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह!
जेब टटोली, कौड़ी न पाई।
माझी को दूँ, क्या उतराई?


कवयित्री कहती है कि प्रभु की प्राप्ति के लिए वह संसार में सीधे रास्ते से आई थी किंतु यहाँ आकर मोह-माया आदि सांसारिक उलझनों में फँसकर अपना रास्ता भूल गई हैं । वह जीवन भर सुषुम्ना नाड़ी के सहारे कुंडलिनी जागरण में लगी रहीं  और इसी में जीवन बीत गया। जीवन के अंतिम समय में जब उन्होंने जेब में खोजा तो कुछ भी हासिल न हुआ। अब उन्हें चिंता सता रही है कि भवसागर से पार उतारने वाले प्रभु रूपी माँझी को उतराई (किराया) के रूप में क्या देंगी ? अर्थात् वह जीवन में कुछ न हासिल कर सकीं ।


थल-थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां।
ज्ञानी है तो स्वयं को जान,
वही है साहिब से पहचान।


ईश्वर की सर्वत्र (सभी जगह) उपस्थिति के बारे में बताती हुई कवयित्री कहती हैं  कि प्रभु  हर स्थान पर व्याप्त है। हे मनुष्य! तू धार्मिक आधार पर हिंदू-मुसलमान का भेदभाव त्यागकर उसे अपना ले। ईश्वर को जानने से पहले तू खुद को पहचान, अपना आत्म-ज्ञान कर, इससे प्रभु से पहचान आसान हो जाएगी। अर्थात् ईश्वर ही तो आत्मा रूप में हम सभी में निवास करता है।

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Q&A



प्रश्न  1: ‘रस्सी’ यहाँ किसके लिए प्रयुक्त हुआ है और वह कैसी है?
उत्तर : यहाँ ‘रस्सी’ शब्द का अर्थ मनुष्य के ‘सांस’ या ‘जीवन’ से है, जिसकी मदद से वह शरीर जैसी नाव को खींच रहा है। वह रस्सी अत्यंत कमजोर तथा नाशवान है। यह किस क्षण टूट जाए कुछ कहा नहीं जा सकता है। उनके अनुसार यह शरीर सदा साथ नहीं रहता। यह कच्चे धागे से खींची जाने वाली नाव की भाँति है जो कभी भी साथ छोड़ सकती है और इसी कच्चे धागे से वह जीवन नैया पार करने की कोशिश कर रही हैं 

प्रश्न  2: कवयित्री द्वारा मुक्ति के लिए किए जाने वाले प्रयास व्यर्थ क्यों हो रहे हैं?

उत्तर : कवयित्री के कच्चेपन के कारण उसके मुक्ति के सारे प्रयास विफल हो रहे हैं अर्थात् उसमें अभी पूर्ण रुप से परिपक्वता नहीं आई है वे इस संसार में उपस्थित लोभ, मोह-माया आदि से मुक्त नहीं हो पा रही हैं  जिसकी वजह से उनके  प्रभु से मिलने के सारे प्रयास व्यर्थ हैं। वह कच्ची मिट्टी के उस बर्तन की तरह है जिसमें रखा जल टपकता रहता है और यही दर्द उसके हृदय में दु:ख का संचार करता रहा है, उसके प्रभु से उसे मिलने नहीं दे रहा।

प्रश्न 3: कवयित्री का ‘घर जाने की चाह’ से क्या तात्पर्य है?

उत्तर : कवयित्री का ‘घर जाने की चाह’ से तात्पर्य प्रभु से मिलन है। कवयित्री इस भवसागर से मुक्ति पाकर अपने प्रभु की शरण में जाना चाहती है। उनके अनुसार जहाँ प्रभु हैं वहीं उनका वास्तविक घर है। कवयित्री इस भवसागर से मुक्ति पाकर अपने प्रभु की शरण में जाना चाहती है। वे  भगवान की शरण को  ही अपना असली घर मानती हैं ।

प्रश्न  4: भाव स्पष्ट कीजिए –

(क) जेब टटोली कौड़ी न पाई।

(ख) खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं,
        न खाकर बनेगा अहंकारी।

उत्तर :

(क) यहाँ भाव है कि मैंने ये जीवन उस प्रभु की कृपा से पाया था। इसलिए मैंने उसके पास पहुँचने के लिए कठिन साधना चुनी परन्तु इस चुनी हुई राह से उसे ईश्वर नहीं मिला। मैंने योग का सहारा लिया ब्रह्मरंध करते हुए मैंने पूरा जीवन बिता दिया परन्तु सब व्यर्थ ही चला गया.  इन सांसारिक विषयों में पड़ कर कवयित्री ने अपना जीवन गँवा दिया। जब उन्होंने अपने जीवन के अंतिम क्षण में अपने जीवन का लेखा-जोखा देखा, तो उनकी भक्ति के परिणामस्वरूप उनके पास प्रभु को देने के लिए कुछ भी नहीं था।उन्होंने जब स्वयं को टटोलकर देखा तो उनके पास कुछ बचा ही नहीं था। अर्थात् काफी समय बर्बाद हो गया और रही तो खाली जेब।


(ख) भाव यह है कि भूखे रहकर तू ईश्वर साधना नहीं कर सकता अर्थात् व्रत पूजा करके भगवान नहीं पाए जा सकते अपितु हम अहंकार के वश में वशीभूत होकर राह भटक जाते हैं। (कि हमने इतने व्रत रखे आदि)।

इन पंक्तियों में कवयित्री ने मनुष्य को सांसारिक भोग और त्याग के बीच का मध्यम मार्ग अपनाने की सलाह दी है। अर्थात वह यह है कि विषय-वासनाओं के अधिकाधिक भोग से कुछ मिलने वाला नहीं हैं तथा भोगों से विमुखता उत्पन्न होगी एवं त्याग की भावना से मन में अहंकार उत्पन्न होगा इसलिए मध्यम मार्ग अपनाना चाहिए।


प्रश्न  5: बंद द्वार की साँकल खोलने के लिए ललद्यद ने क्या उपाय सुझाया है?

उत्तर : कवयित्री के अनुसार ईश्वर को अपने अन्त:करण में खोजना चाहिए। जिस दिन मनुष्य के हृदय में ईश्वर भक्ति जागृत हो गई अज्ञानता के सारे अंधकार स्वयं ही समाप्त हो जाएँगे। जो दिमाग इन सांसारिक भोगों को भोगने का आदी हो गया है और इसी कारण उसने ईश्वर से खुद को विमुख कर लिया है, प्रभु को अपने हृदय में पाकर स्वत: ही ये साँकल (जंजीरे) खुल जाएँगी और प्रभु के लिए द्वार के सारे रास्ते मिल जाएँगे। इसलिए सच्चे मन से प्रभु की साधना करो, अपने अन्त:करण व बाह्य इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर हृदय में प्रभु का जाप करो, सुख व दुख को समान भाव से भोगों। यही उपाय कवियत्री ने सुझाए हैं।

प्रश्न  6: ईश्वर प्राप्ति के लिए बहुत से साधक हठयोग जैसी कठिन साधना भी करते हैं, लेकिन उससे भी लक्ष्य प्राप्ति नहीं होती। यह भाव किन पंक्तियों में व्यक्त हुआ है?

उत्तर : यह भाव निम्न पंक्तियों में से लिया गया है :-

आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।
सुषम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह!
जेब टटोली, कौड़ी न पाई।
माझी को दूँ, क्या उतराई?

 

लेखिका के अनुसार ईश्वर को पाने के लिए लोग हठ साधना करते हैं पर परिणाम कुछ नहीं निकलता। इसके विपरीत होता यह है कि हम अपना बहुमूल्य वक्त व्यर्थ कर देते हैं और अपने लक्ष्य को भुला देते हैं। जब स्वयं को देखते हैं तो हम पिछड़ जाते हैं। हम तो ईश्वर को सहज भक्ति द्वारा भी प्राप्त कर सकते हैं। उसके लिए कठिन भक्ति की कोई आवश्यकता नहीं है।

प्रश्न 7: ‘ज्ञानी’ से कवयित्री का क्या अभिप्राय है?

उत्तर : यहाँ कवयित्री ने ज्ञानी से अभिप्राय उस ज्ञान को लिया है जो आत्मा व परमात्मा के सम्बन्ध को जान सके ना कि उस ज्ञान से जो हम शिक्षा द्वारा अर्जित करते हैं। कवयित्री के अनुसार भगवान कण-कण में व्याप्त हैं पर हम उसको धर्मों में विभाजित कर मंदिरों व मस्जिदों में ढूँढते हैं। जो अपने अन्त:करण में बसे ईश्वर के स्वरुप को जान सके वही ज्ञानी कहलाता है और वहीं उस परमात्मा को प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि ईश्वर को अपने ही हृदय में ढूँढना चाहिए और जो उसे ढूँढ लेते हैं वही सच्चे ज्ञानी हैं।


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रचना और अभिव्यक्ति



प्रश्न 1  : हमारे संतों, भक्तों और महापुरुषों ने बार-बार चेताया है कि मनुष्यों में परस्पर किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं होता, लेकिन आज भी हमारे समाज में भेदभाव दिखाई देता है –

(क) आपकी दृष्टि में इस कारण देश और समाज को क्या हानि हो रही है? 

उत्तर : समाज में भेदभाव के कारण देश और समाज को बहुत हानि हो रही है। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं –
  • समाज का बँटवारा हो गया है। एक वर्ग से दूसरे वर्ग के बीच अकारण ही मतभेद पैदा हो गया है।
  • भेदभाव के कारण पैदा हुआ समाज का उच्च-वर्ग, निम्न-वर्ग को हीन दृष्टि से देखता है।
  • त्योहारों के अवसर पर अनायास झगड़े होते रहते हैं।
  • आपसी भेदभाव के कारण एक वर्ग दूसरे वर्ग को संदेह और अविश्वास की दृष्टि से देखता है।
  • हमारी सहिष्णता समाप्त होती जा रही है। आक्रोश बढ़ता जा रहा है जिसका परिणाम उग्रवाद, अलगाववाद केरूप में हमारे सामने आ रहा है। 

(ख) आपसी भेदभाव को मिटाने के लिए अपने सुझाव दीजिए।

उत्तर : आपसी भेदभाव को मिटाने के लिए कुछ सुझाव निम्नलिखित हैं-
  • सभी लोगों में चाहे वे किसी जाति, धर्म के क्यों न हों, को अपने नाम के साथ जातिसूचक शब्दों को लिखनाबंद कर देना चाहिए।
  • अंतर्जातीय विवाह को बढ़ावा देने के लिए सरकार को आगे आना चाहिए।
  • पाठ्यक्रम में समता को बढ़ाने वाला तथा जातीयता को बढ़ावा न देने वाले कुछ पाठ शामिल किए जाए।
  • नौकरियों तथा सेवाओं में आरक्षण समाप्त कर योग्यता को आधार बनाया जाना चाहिए।
  • धार्मिक, जातीय, क्षेत्रीयता, भाषा की राजनीति करने वाली पार्टियों तथा उनके नेताओं को प्रतिबंधित कर देनाचाहिए।
  • सभी के लिए शिक्षा की एक समान व्यवस्था होनी चाहिए ताकि युवा पीढ़ी के मन में ऊँच-नीच का भेदभावपैदा न हो। 

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Mere Sang ki Aurte class 9 | मेरे संग की औरतें |



Work-sheet

कार्य पत्रक 




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