Mere Sang ki Aurte class 9 | मेरे संग की औरतें |

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पाठ -2

मेरे संग की औरतें 



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ध्वनि प्रस्तुति



mere sang ki aurte class 9

 मेरे संग की औरतें 

 मृदुला गर्ग 

mere sang ki aurte class 9 summary

 सारांश 

 प्रस्तुत संस्मरण लेखिका मृदुला गर्ग द्वारा लिखा गया है। इसमें लेखिका ने अपने परिवार की औरतों के व्यक्तित्व और स्वभाव पर प्रकाश डाला है। लेखिका ने अपनी नानी के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। लेखिका की नानी अनपढ़, परंपरावादी और पर्दा-प्रथा वाली औरत थीं। उनके नाना ने तो विवाह के बाद कैंब्रिज विश्वविद्यालय से बैरिस्ट्री पास की और विदेशी शान-शौकत से जिंदगी बिताने लगे, परंतु नानी पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अत: नानी ने अपनी पुत्री की शादी की ज़िम्मेदारी अपने पति के एक मित्र स्वतंत्रता सेनानी प्यारे लाल शर्मा को सौंप दी कि वे अपनी बेटी की शादी आज़ादी के सिपाही से करवाना चाहती हैं। अत: लेखिका की माँ की शादी एक स्वतंत्रता सेनानी से हुई। वे अब खादी की साड़ी पहना करती थीं, जो उनके लिए असहनीय थी। लेखिका ने अपनी माँ को कभी भारतीय माँ जैसा नहीं देखा था। वे घर-परिवार और बच्चों के खान-पान आदि में ध्यान नहीं देती थीं। उन्हें पुस्तकें पढ़ने और संगीत सुनने का शौक था। उनमें दो गुण मुख्य थे-पहला, कभी झूठ न बोलना और दूसरा, वे एक की गोपनीय बात को दूसरे पर जाहिर नहीं होने देती थीं। इसी कारण उन्हें घर में आदर तथा बाहरवालों से दोस्ती मिलती थी।

          लेखिका की परदादी को लीक से हटकर चलने का शौक था। उन्होंने मंदिर में जाकर विनती की कि उनकी पतोहू का पहला बच्चा लड़की हो। उनकी यह बात सुनकर लोग हक्के-बक्के से रह गए थे। ईश्वर ने उनके घर में पूरी पाँच कन्याएँ भेज दीं।

          एक बार घर के सभी लोग घर से बाहर एक बरात में गए हुए थे और घर में जागरण था। अत: लेखिका की दादी शोर मचने की वजह से दूसरे कमरे में जाकर सोई हुई थीं। तभी चोर ने सेंध लगाई और उसी कमरे में घुस आया। परदादी की नींद खुल गई। उन्होंने चोर से एक लोटा पानी माँगा। बूढ़ी दादी के हठ के आगे चोर को झुकना पड़ा और वह कुएँ से पानी ले आया। परदादी ने आधा लोटा पानी खुद पिया और आधा लोटा पानी चोर को पिला दिया और कहा कि अब हम माँ-बेटे हो गए। अब तुम चाहे चोरी करो या खेती करो। उनकी बात मानकर चोर चोरी छोड़कर खेती करने लगा।
 
          लेखिका की बहनों में कभी इस हीन-भावना की बात नहीं आई कि वे एक लड़की हैं। पहली लड़की जिसके लिए परदादी ने मन्नत माँगी  थी वह मंजुला भगत थीं। दूसरे नंबर की लड़की खुद लेखिका मृदुला गर्ग  (घर का नाम उमा) थीं। तीसरी बहन का नाम चित्रा और उसके बाद  रेणु और अचला नाम की बहनें थीं। इन पाँच बहनों के बाद एक भाई  राजीव था।

          लेखिका का भाई राजीव हिंदी में और अचला अंग्रेजी में लिखने  लगी और रेणु विचित्र स्वभाव की थी। वह स्कूल से वापसी के समय गाड़ी में बैठने से इनकार कर देती थी और पैदल चलकर ही पसीने से तर होकर घर आती थी। उसके विचार सामंतवादी व्यवस्था के खिलाफ़ थे। वह बी०ए० पास करना भी उचित नहीं मानती थी। लेखिका की तीसरी बहन चित्रा को पढ़ने में कम तथा पढ़ाने में अधिक रुचि थी। इस कारण उसके शिष्यों से उसके कम अंक आते थे। उसने अपनी शादी के लिए एक नज़र में लड़का पसंद करके ऐलान किया कि वह शादी करेगी तो उसी से और उसी के साथ उसकी शादी हुई।

          अचला, सबसे छोटी बहन, पत्रकारिता और अर्थशास्त्र की छात्रा थी। उसने पिता की पसंद से शादी कर ली थी और उसे भी लिखने का रोग था। सभी ने शादी का निर्वाह भली-भाँति किया। लेखिका शादी के बाद बिहार के एक कस्बे, डालमिया नगर में रहने लगीं। वहीं पर वहाँ की औरतों के साथ उन्होंने नाटक भी किए। इसके बाद मैसूर राज्य के कस्बे, बागलकोट में रहीं। वहाँ लेखिका ने अपने बलबूते पर प्राइमरी स्कूल खोला, जिसमें उनके और अन्य अफसरों के बच्चों ने अपनी पढ़ाई की तथा भिन्न-भिन्न शहरों के अलग-अलग विद्यालयों में दाखिला लिया। विद्यालय खोलकर लेखिका ने दिखा दिया कि वे अपने प्रयास में कभी असफल नहीं हो सकतीं। परंतु लेखिका स्वयं को अपनी छोटी बहन रेणु से कमतर आँकती थीं। वे एक अन्य घटना का स्मरण करते हुए लिखती हैं कि दिल्ली में 1950 के अंतिम दौर में नौ इंच तेज बारिश हुई तथा चारों तरफ़ पानी भर गया था। रेणु की स्कूल-बस नहीं आई थी। सबने कहा कि स्कूल बंद होगा, अतः वह स्कूल न जाए किंतु वह नहीं मानी। अपनी धुन की पक्की वह दो मील पैदल चलकर स्कूल गई और स्कूल बंद होने पर वापस लौटकर आई। लेखिका मानती हैं कि अपनी धुन में मंजिल की ओर चलते जाने का और अकेलेपन का कुछ और ही मज़ा होता है।

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mere sang ki aurte class 9 question answer

 Q&A 


प्रश्न 1: लेखिका ने अपनी नानी को कभी देखा भी नहीं फिर भी उनके व्यक्तित्व से वे क्यों प्रभावित थीं?

उत्तर : लेखिका की नानी की मृत्यु उनकी माँ की शादी से पहले हो गई थी परन्तु उनकी माँ के द्वारा उन्होंने नानी के विषय में बहुत कुछ सुन रखा था। बेशक उनकी नानी शिक्षित स्त्री नहीं थीं, न ही कभी पर्दा व घर से बाहर ही गई थीं। परन्तु वे एक स्वतंत्र व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं। उनके मन में आज़ादी की लड़ाई करने वालों के लिए विशेष आदर था। यही कारण था कि अपने अंत समय से पहले अपने पति के मित्र से उन्होंने निवेदन किया था कि उनकी पुत्री का विवाह उनके पति की पसंद से न हो, क्योंकि वह स्वयं अंग्रेज़ों के समर्थक थे, बल्कि उनके मित्र करवाएँ। वह अपनी ही तरह आज़ादी का दीवाना ढूँढे। वे देश की आज़ादी के लिए भी जूनून रखती परन्तु कभी घर से बाहर उन्होंने कदम नहीं रखा था।

प्रश्न 2: लेखिका की नानी की आज़ादी के आंदोलन में किस प्रकार की भागीदारी रही?

उत्तर : वह प्रत्यक्ष रुप में भले ही आज़ादी की लड़ाई में भाग नहीं ले पाई हों परन्तु अप्रत्यक्ष रुप में सदैव इस लड़ाई में सम्मिलित रहीं और इसका मुख्य उदारहण यही था कि उन्होनें अपनी पुत्री की शादी की ज़िम्मेदारी अपने पति के स्वतंत्रता सेनानी मित्र को दी थी। वह अपना दामाद एक आज़ादी का सिपाही चाहती थीं न कि अंग्रेज़ों की चाटुकारी करने वाले को।

प्रश्न  3: लेखिका की माँ परंपरा का निर्वाह न करते हुए भी सबके दिलों पर राज करती थी। इस कथन के आलोक में –

(क) लेखिका की माँ की विशेषताएँ लिखिए।
(ख) लेखिका की दादी के घर के माहौल का शब्द-चित्र अंकित कीजिए।

उत्तर : लेखिका की माँ बेरिस्टर की बेटी थीं। वे अपनी माँ की ही भांति स्वतंत्र व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं। उन्होंने कभी भी एक बहू, पत्नी व माँ के कर्तव्यों का पालन नहीं किया था। परन्तु फिर भी वे सारे घर की प्यारी थीं। उनके लिए लेखिका ने कहा है, कभी घर के किसी अन्य सदस्य को शायद ही कुछ कहते सुना हो क्योंकि –

(क) 

(1) उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी कि वे एक ईमानदार स्त्री थीं। वे कभी झूठ नहीं बोलती थीं फिर चाहे कितना कड़वा सच ही क्यों न हो। ये उनके चरित्र की बड़ी विशेषता थी। यही कारण है कि घर के सभी लोग उनका आदर करते थे।
(2) वे कभी किसी की गोपनीय बात कभी दूसरे पर ज़ाहिर नहीं होने देती थीं। जिसके कारण सभी व्यक्ति उनके मित्र थे। उनकी सलाह का सभी सम्मान करते थे।

(ख) 

लेखिका की दादी के घर का माहौल स्वतंत्रता से परिपूर्ण था। वे अपनी बहुओं व बेटियों पर ताना या उलाहना नहीं देती थीं। उनका घर परिवार की दृष्टि से काफी बड़ा था। उनकी एक परदादी भी थीं। उनके घर में सबको समान अधिकार प्राप्त था। किसी से भी कोई सवाल-जवाब नहीं किया करता था। उनका घर उस समय के परिवेश से सर्वदा भिन्न था। उस समय में उनकी परदादी द्वारा लड़की माँगने से सभी हैरान थे, पर उनकी दादी की यही इच्छा थी।

प्रश्न  4: आप अपनी कल्पना से लिखिए कि परदादी ने पतोहू के लिए पहले बच्चे के रूप में लड़की पैदा होने की मन्नत क्यों माँगी?

उत्तर : उनकी दादी भिन्न स्वभाव की स्वामिनी थीं। लेखिका के अनुसार उनकी दादी लोगों से विपरीत ही चला करती थीं। वह सदैव लीक से हटकर बात करती थीं, उन्हें कतार में चलने का शौक नहीं था। परन्तु हमारी समझ से उनकी दादी लड़कियों से बहुत प्यार करती थीं सायद यही वजह रही हो कि वो अपने पतोहू से पहले बच्चे के रुप में कन्या चाहती थीं। पाँच कन्या होने पर भी कभी उन्होंने लेखिका की माँ को ताना या उलाहना नहीं दिया।

प्रश्न  5: डराने-धमकाने, उपदेश देने या दबाव डालने की जगह सहजता से किसी को भी सही राह पर लाया जा सकता है – पाठ के आधार पर तर्क सहित उत्तर दीजिए।

उत्तर : लेखिका के अनुसार एक बार उनके घर में चोर घुस आया था। उस पर चोर की ही बदकिस्मती थी कि वह लेखिका की दादी माँ के कमरे में घुस गया। उनकी दादी माँ ने यह जानते हुए भी कि वह चोर है उसको न डराया न धमकाया बल्कि सहजता पूर्वक उसे सुधार दिया। उन्होंने न सिर्फ़ उसके हाथ का पानी पिया अपितु उसी लोटे से पानी पिलाकर उसे अपना बेटा बना लिया। जिसके परिणामस्वरूप उस चोर ने चोरी करना छोड़कर खेतीबाड़ी कर अपना पूरा जीवनयापन किया।

प्रश्न 6: ‘शिक्षा बच्चों का जन्मसिद्ध अधिकार है’ – इस दिशा में लेखिका के प्रयासों का उल्लेख कीजिए।

उत्तर : लेखिका बच्चों की शिक्षा के प्रति बहुत जागरूक थीं। उनके अनुसार हर बच्चे को शिक्षा पाने का अधिकार था। इसी उद्देश्य से उन्होंने कर्नाटक के छोटे से कस्बे, बागलकोट में बच्चों के लिए जहाँ स्कूल का अभाव था, कैथोलिक बिशप से स्कूल खोलने का आग्रह किया। चूंकि वहाँ क्रिश्चयन बच्चों की संख्या अधिक नहीं थी इसलिए बिशप ने उनकी दरखास्त को नामंजूर कर दिया। लेखिका इससे हताश नहीं हुईं अपितु अपने प्रयासों से उन्होंने तीन भाषाएँ पढ़ाने वाला (अंग्रेज़ी, हिंदी, कन्नड़) स्कूल स्वयं आरंभ कर दिया और उसे वहाँ मान्यता भी दिलवाई।

प्रश्न 7: पाठ के आधार पर लिखिए कि जीवन में कैसे इंसानों को अधिक श्रद्धा भाव से देखा जाता है?

उत्तर : जो इंसान सदैव सत्य बोले, ईमानदारी से अपना जीवन व्यतीत करे, दृढ़ निश्चयी हो, दूसरों की बातों की गोपनीयता को दूसरों पर प्रकट न करे, जो सबके साथ समान व्यवहार करे, समाज की भलाई के लिए कार्यरत रहे तथा अपने कर्त्तव्यों से विमुख न हो, ऐसे मनुष्य को श्रद्धा भाव से देखा जाता है।

प्रश्न  8: ‘सच, अकेलेपन का मज़ा ही कुछ और है’ – इस कथन के आधार पर लेखिका की बहन एवं लेखिका के व्यक्तित्व के बारे में अपने विचार व्यक्त कीजिए।

उत्तर : लेखिका व उनकी बहन एकांत प्रिय स्वभाव की थीं। लेखिका व उनकी बहन के व्यक्तित्व का सबसे खूबसूरत पहलू था – वे दोनों ही जिद्दी स्वभाव की थीं परन्तु इस जिद्द से वे हमेशा सही कार्य को ही अंजाम दिया करती थे। लेखिका कि जिद्द ने ही कर्नाटक में स्कूल खोलने के लिए प्रेरित किया था। वे दोनों स्वतंत्र विचारों वाले व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं और इसी कारण जीवन में अपने उद्देश्यों को पाने में सदा आगे रहीं।

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 मेरे संग की औरतें 

 मृदुला गर्ग 


मेरी एक नानी थीं। जाहिर है। पर मैंने उन्हें कभी देखा नहीं। मेरी माँ की शादी होने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई थी। शायद नानी से कहानी न सुन पाने के कारण बाद में, हम तीन बहिनों को खुद कहानियाँ कहनी पड़ीं। नानी से कहानी भले न सुनी हो, नानी की कहानी जरूर सुनी और बहुत बाद में जाकर उसका असली मर्म समझ में आया। पहले इतना ही जाना कि मेरी नानी, पारंपरिक, अनपढ़, परदानशी औरत थीं, जिनके पति शादी के तुरंत बाद उन्हें छोड़कर बैरिस्ट्री पढ़ने विलायत चले गए थे। कैंब्रिज विश्वविद्यालय से डिग्री लेकर जब वे लौटे और विलायती रीति–रिवाज के संग जिंदगी बसर करने लगे तो, नानी के अपने रहन–सहन पर, उसका कोई असर नहीं पड़ा, न उन्होंने अपनी किसी इच्छा–आकांक्षा या पसंद–नापंसद का इज़हार पति पर कभी किया।


पर जब कम उम्र में नानी ने खुद को मौत के करीब पाया तो, पंद्रह वर्षीय इकलौती बेटी ‘मेरी माँ‘ की शादी की फ़िक्र ने इतना डराया कि वे एकदम मुँहज़ोर हो उठीं। नाना से उन्होंने कहा कि वे परदे का लिहाज़ छोड़कर उनके दोस्त स्वतंत्रता सेनानी प्यारेलाल शर्मा से मिलना चाहती हैं। सब दंग–हैरान रह गए। जिस परदानशीं औरत ने पराए मर्द से क्या, खुद अपने मर्द से मुँह खोलकर बात नहीं की थी, आखिरी वक्त में अजनबी से क्या कहना चाह सकती है? पर नाना ने वक्त की कमी और मौके की नज़ाकत की लाज रखी! सवाल–जवाब में वक्त बरबाद करने के बजाए फ़ौरन जाकर दोस्त को लिवा लाए और बीबी के हुजूर में पेश कर दिया।


अब जो नानी ने कहा, वह और भी हैरतअंगेज़ था। उन्होंने कहा, “वचन दीजिए कि मेरी लड़की के लिए वर आप तय करेंगे। मेरे पति तो साहब हैं और मैं नहीं चाहती मेरी बेटी की शादी, साहबों के फ़रमाबरदार से हो। आप अपनी तरह आजादी का सिपाही ढूँढ़कर उसकी शादी करवा दीजिएगा।” कौन कह सकता था कि अपनी आज़ादी से पूरी तरह बेखबर उस औरत के मन में देश की आजादी के लिए ऐसा जुनून होगा। बाद में मेरी समझ में आया कि दरअसल वे निजी जीवन में भी काफ़ी आज़ाद–खयाल रही होंगी। ठीक है, उन्होंने नाना की जिंदगी में कोई दखल नहीं दिया, न उसमें साझेदारी की, पर अपनी जिंदगी को अपने ढंग से जीती ज़रूर रहीं। पारंपरिक, घरेलू, उबाऊ और खामोश जिंदगी जीने में, आज के हिसाब से, क्रांतिकारी चाहे कुछ न रहा हो दूसरे की तरह जीने के लिए मजबूर न होने में असली आज़ादी कुछ ज्यादा ही थी।


खैर, इस तरह मेरी माँ की शादी ऐसे पढ़े–लिखे होनहार लड़के से हुई, जिसे आज़ादी के आंदोलन में हिस्सा लेने के अपराध में आई.सी.एस. के इम्तिहान में बैठने से रोक दिया गया था और जिसकी जेब में पुश्तैनी पैसा–धेला एक नहीं था। माँ, बेचारी, अपनी माँ और गांधी जी के सिद्धांतों के चक्कर में सादा जीवन जीने और ऊँचे खयाल रखने पर मजबूर हुईं। हाल उनका यह था कि खादी की साड़ी उन्हें इतनी भारी लगती थी कि कमर चनका खा जाती। रात–रात भर जागकर वे उसे पहनने का अभ्यास करतीं, जिससे दिन में शर्मिंदगी न उठानी पड़े। वे कुछ ऐसी नाजुक थीं कि उन्हें देखकर उनकी सास यानी मेरी दादी ने कहा था, “हमारी बहू तो ऐसी है कि धोई, पोंछी और छींके पर टाँग दी।” गनीमत यही थी कि किसी ने उन्हें छींके पर से उतारने की पेशकश नहीं की।


क्यों नहीं की, उसकी दो वजहें थीं। पहली यही कि हिंदुस्तान के तमाम वाशिंदों की तरह, उनके ससुरालवाले भी, साहबों से खासे अभिभूत थे और मेरे नाना पक्के साहब माने जाते थे। बस जात से वे हिंदुस्तानी थे, बाकी चेहरे–मोहरे, रंग–ढंग, पढ़ाई–लिखाई, सबमें अंग्रेज़ थे। मजे की बात यह थी कि हमारे देश में आजादी की जंग लड़ने वाले ही अंग्रेजों के सबसे बड़े प्रशंसक थे, गांधी–नेहरू हों या मेरे पिता जी के घरवाले। भले लड़का, आजादी की लड़ाई लड़ते, जेब खाली और शोहरत सिर करता रहे, दबदबा उसके साहबी ससुर का ही था। एक आन–बान–शान वाले साहब ने उनके सिरफिरे लड़के को अपनी नाजुक जान लड़की सौंपी, उससे रोमांचक क्या कोई परिकथा होती! नानी की सनकभरी आखिरी ख्वाहिश और नाना की रज़ामंदी, वे रोमांचक उपकथाएँ थीं, जो कहानी के तिलिस्म को और गाढ़ा बना चुकी थीं। दूसरी वजह माँ की अपनी शख्सियत थी। उनमें खूबसूरती, नज़ाकत, गैर–दुनियादारी के साथ ईमानदारी और निष्पक्षता कुछ इस तरह घुली–मिली थी कि वे परीजात से कम जादुई नहीं मालूम पड़ती थीं। उनसे ठोस काम करवाने की कोई सोच भी नहीं सकता था। हाँ, हर ठोस और हवाई काम के लिए उनकी ज़बानी राय जरूर माँगी जाती थी और पत्थर की लकीर की तरह निभाई भी जाती थी।


मैंने अपनी दादी को कई बार कहते सुना था, “हम हाथी पे हल ना जुतवाया करते, हम पे बैल हैं।” बचपन में ही मुझे इस जुमले का भावार्थ समझ में आ गया था, जब देखा था कि, हम बच्चों की ममतालू परवरिश के मामले में माँ के सिवा घर के सभी प्राणी मुस्तैद रहते थे। दादी और उनकी जिठानियाँ ही नहीं, खुद–मर्दजात, पिता जी भी।


पर ठोस काम न करने का यह मतलब नहीं था कि माँ को आज़ादी का जुनून कम था। वह भरपूर था और अपने तरीके से वे उसे भरपूर निभाती रही थीं। जाहिर है कि जब जुनून आज़ादी का हो तो, उसे निभाना भी आज़ादी से चाहिए। जिस–तिस से पूछकर, उसके तरीके से नहीं, खुद अपने तरीके से।


हमने अपनी माँ को कभी भारतीय माँ जैसा नहीं पाया। न उन्होंने कभी हमें लाड़ किया, न हमारे लिए खाना पकाया और न अच्छी पत्नी–बहू होने की सीख दी। कुछ अपनी बीमारी के चलते भी, वे घरबार नहीं सँभाल पाती थीं पर उसमें ज्यादा हाथ उनकी अरुचि का था। उनका ज्यादा वक्त किताबें पढ़ने में बीतता था, बाकी वक्त साहित्य–चर्चा में या संगीत सुनने में और वे ये सब बिस्तर पर लेटे–लेटे किया करती थीं। फिर भी, जैसा मैंने पहले कहा था, हमारे परंपरागत दादा–दादी या उनकी ससुराल के अन्य सदस्य उन्हें न नाम धरते थे, न उनसे आम औरत की तरह होने की अपेक्षा रखते थे। उनमें सबकी इतनी श्रद्धा क्यों थी, जबकि वह पत्नी, माँ और बहू के किसी प्रचारित कर्तव्य का पालन नहीं करती थीं? साहबी खानदान के रोब के अलावा मेरी समझ में दो कारण आए हैं-(1) वे कभी झूठ नहीं बोलती थीं और (2) वे एक की गोपनीय बात को दूसरे पर जाहिर नहीं होने देती थीं।


पहले के कारण उन्हें घरवालों का आदर मिला हुआ था; दूसरे के कारण बाहरवालों की दोस्ती। दोस्त वे हमारी भी थीं, माँ की भूमिका हमारे पिता बखूबी निभा देते थे। मुझे याद है, बचपन में भी हमारे घर में किसी की चिट्ठी आने पर कोई उससे यह नहीं पूछता था कि उसमें क्या लिखा है। भले वह एक बहन की दूसरी के नाम क्यों न हो और माँ यह जानने को बेहाल हों कि बीमारी से वह उबरी या नहीं। छोटे से घर में छह बच्चों के साथ, सास–ससुर आदि के रहते हुए भी, हर व्यक्ति को अपना निजत्व बनाए रखने की छूट थी। इसी निजत्व बनाए रखने की छूट का फायदा उठाकर, हम तीन बहनें और छोटा भाई लेखन के हवाले हो गए।


लीक से खिसके, अपने पूर्वजों में, माँ और नानी हो रही होती तो गनीमत रहती, पर अपनी एक परदादी भी थीं, जिन्हें कतार से बाहर चलने का शौक था। उन्होंने व्रत ले रखा था कि अगर खुदा के फ़ज़ल से, उनके पास कभी दो से ज़्यादा धोतियाँ हो जाएँगी तो वे तीसरी दान कर देंगी। जैन समाज में अपरिग्रह की सनक बिरादरी बाहर हरकत नहीं मानी जाती, इसलिए वहाँ तक तो ठीक था। पर उनका असली जलवा तब देखने को मिला, जब मेरी माँ पहली बार गर्भवती हुईं। मेरी परदादी ने मंदिर में जाकर मन्नत माँगी कि उनकी पतोहू का पहला बच्चा लड़की हो। यह गैर–रवायती मन्नत माँगकर ही उन्हें चैन नहीं पड़ा। उसे भगवान और अपने बीच पोशीदा रखने के बजाए सरेआम उसका ऐलान कर दिया। लोगों के मुँह खुले–के–खुले रह गए। उनके फ़ितूर की कोई वाजिब वजह ढूँढ़े न मिली। यह भी नहीं कह सकते थे कि खानदान में पुश्तों से कन्या पैदा नहीं हुई थी, इसलिए माँ जी बेचारी कन्यादान के पुण्य के अभाव को पूरा करने के चक्कर में थीं। क्योंकि पिता जी की ही नहीं, दादा जी की भी बहनें मौजूद थीं। हाँ, पहला बच्चा हर बहू का बेटा होता रहा था। खैर, माँ जी ने अपनी तरफ़ से कोई सफ़ाई नहीं दी, बल्कि बदस्तूर मंदिर जाकर मन्नत दुहराती रहीं। पूरा नकुड़ गाँव जानता था कि माँ जी का भगवान के साथ सीधा–सीधा तार जुड़ा हुआ है। बेतार का तार। इधर वह तार खींचती, उधर टन से तथास्तु बजता। मेरी दादी तो पहली मर्तबा में ही तैयार हो गई थी कि गोद में खेलेगी, तो पोती। पर माँ जी की आरजू किस कदर रंग लाएगी, उसका उन्हें भी गुमान न रहा होगा।


लड़की की गैर–वाजिब जुस्तजू सुन, भगवान कुछ ऐसी अफरा–तफरी में आ गए कि एक न दो, पूरी पाँच कन्याएँ, एक–के–बाद–एक धरती पर उतार दी। भगवान को क्या कहें, माँ जी के सामने तो नामी चोर भी अफरा–तफरी में आ जाते थे। माँ जी और नामी चोर का किस्सा होश सँभालने के बाद मैंने कई बार सुना था, चोर के दीदार की खुशनसीबी भी हाथ आई थी।


हुआ यूँ था कि किसी शादी के सिलसिले में नकुड़ की हवेली के तमाम मर्द बारात में दूसरे गाँव गए हुए थे। औरतें सज–धज कर रतजगा मना रही थीं। नाच–गाने और ढोलक की थाप के शोर में नामी चोर कब सेंध लगाकर हवेली में घुसा, किसी को खबर न हुई। पर चोर था बदकिस्मत, जिस कमरे में घुसा, उसमें माँ जी सोई हुई थीं। औरतों के शोर से बचने को, वे अपना कमरा छोड़ दूसरे में जा सोई थीं। चोर बेचारा, तमाम जुगराफ़िया दिमाग में बिठलाकर उतरा था, उसे क्या पता था कि इतनी बड़ी–बूढ़ी पुरखिन जगह बदल लेगी। खैर, बुढ़ापे की नींद ठहरी, चोर के दबे पाँवों की आहट से ही खुल गई।


“कौन?” माँ जी ने इतमीनान से पूछा। “जी, मैं“, चोर ने युगों से चला आ रहा, पारंपरिक, असंगत जवाब दिया। “पानी पिला“, माँ जी ने कहा। “जी मैं…?” चोर झिझककर रह गया।

तब तक माँ जी बिस्तर के बराबर में टटोलकर देख चुकी थीं, लोटा खाली था। “ऐसा कर“, उन्होंने कहा, “यह लोटा ले और कुएँ से पानी भर ला। पर देख, कपड़ा कसकर बाँधे रखियो और तरीके से छानियो।”

चोर घबरा गया, अँधेरे में इन्होंने कैसे जाना कि उसके मुँह पर कपड़ा बँधा है और कमर में भाँग। भगवान से उनका तार जुड़े होने की खबर उसे थी। पर बुढ़िया भाँग भी छानती होगी, एकदम यकीन न हुआ। इसी से कुछ हैरान–परेशान हो उठा।

“जल्दी कर भाई“, तभी माँ जी ने कहा, “बड़ी प्यास लगी है।” “पर मैं तो चोर हूँ“, मारे घबराहट और धर्मसंकट के चोर सच कह गया।

“हुआ करे“, माँ जी ने कहा, “प्यासे को पानी तो पिला। पर देख, मेरा धरम न बिगाड़ियो, लोटे के मुँह से कपड़ा न हटाइयो, हाथ रगड़कर धो लीजो और पानी कपड़े से छानकर भरियो।”

“आप चोर के हाथ का पी लोगी?”

“कहा न, रगड़कर धो लीजो, सब नाच–गाने में लगे हैं, तेरे और भगवान के सिवा कौन धरा है, जो पिलाएगा।”


भगवान वहीं–कहीं उसके बराबर में धरे हैं, सुनकर चोर कुछ ऐसा अकबकाया कि लोटा उठाकर चल दिया। पूरी एहतियात के साथ पानी भरकर लौटा तो, पहरेदार ने धर–दबोचा। कुँए पर देख लिया गया था।

तब माँ जी ने लोटे का आधा पानी खुद पीकर, बाकी चोर को पिला दिया और कहा, “एक लोटे से पानी पीकर हम माँ–बेटे हुए। अब बेटा, चाहे तो तू चोरी कर, चाहे खेती।”


बेटा बेचारा किस लायक रह गया होगा। सो रोमांचक धंधा छोड़ खेती से लगा। सालों–साल लगा रहा। जब मैंने उसे देखा तो बड़ा भलामानुस बूढ़ा लगा मुझे, डरा–डरा, हैरान–सा।


अब खानदानी विरासत कहिए या जीवाणुओं का प्रकोप, उन दो सनकी बुढ़ियों के बीच मैं अच्छी फँसी! एक तरफ़, माँ जी के चलते, अपने लड़की होने पर कोई हीन भावना मन में नहीं उपजी। दूसरी तरफ़, नानी के चलते, देश की आज़ादी को लेकर नाहक रोमानी ही रही।


15 अगस्त 1947 को, जब देश को आजादी मिली या कहना चाहिए, जब आज़ादी पाने का जश्न मनाया गया तो दुर्योग से मैं बीमार थी। उन दिनों, टाइफाइड खासा जानलेवा रोग माना जाता था। इसलिए मेरे तमाम रोने–धोने के बावजूद डॉक्टर ने मुझे इंडिया गेट जाकर, जश्न में शिरकत करने की इजाजत नहीं दी। चूँकि डॉक्टर अपने नाना के परम मित्र, उनसे ज़्यादा नाना थे इसलिए हमारे पिता जी, जो बात–बात पर सत्ताधारियों से लड़ते–भिड़ते फिरते थे, चुप्पी साध गए। मैं बदस्तूर रोती–कलपती रही, क्या कोई बच्चा इकलौती गुड़िया के टूट जाने पर रोया होगा! मेरी उम्र तब नौ बरस की थी। इतनी छोटी नहीं कि गुड़िया से बहलती और इतनी बड़ी नहीं कि डॉक्टरी तर्क समझती। तंग आकर पिता जी मुझे ‘ब्रदर्स कारामजोव” उपन्यास पकड़ा गए। किताबें पढ़ने का मुझे मिराक‘ था। सो, जब कुछ देर बाद मैंने देखा कि पिता जी को छोड़कर, घर के बाकी सब प्राणी पलायन कर चुके थे और पिता जी दूसरे कमरे में बैठे अपनी किताब पढ़ रहे थे तो, रोना–धोना छोड़कर मैंने भी किताब खोल ली। एक बार शुरू कर लेने पर, उसने मुझे इतनी मोहलत नहीं दी कि दोबारा रोना शुरू करूँ या कोई और काम पक.। उस वक्त ‘ब्रदर्स कारामजोव‘ मुझे देने में क्या तुक थी, तब मेरी समझ में नहीं आया। किताब कितनी समझ में आई, वह अब तक नहीं जानती, क्योंकि उसके बाद इतनी बार पढ़ी कि सारे पाठ आपस में गड्ड–मड्ड हो गए। कितना पहली बार में पल्ले पड़ा, कितना बाद में, कहना मुश्किल है। पर इतना विश्वास के साथ कह सकती हूँ कि उसका एक अध्याय, जो बच्चों पर होने वाले अनाचार–अत्याचार पर था, मुझे पहली बार में ही लगभग कंठस्थ हो गया था। उम्र के हर पड़ाव पर वह मेरे साथ रहा और मेरे लेखन के एक महत्त्वपूर्ण भाग को प्रभावित करता रहा। जैसे ‘जादू का कालीन‘ मेरा नाटक, ‘नहीं‘ व ‘तीन किलो की छोरी‘, जैसी कहानियाँ व ‘कठगुलाब‘ उपन्यास के कई अंश।

माँ जी की मन्नत का असर रहा होगा कि मैं ही नहीं, मेरी चारों बहनें भी लड़की होने के नाते किसी हीन भावना का शिकार नहीं हुई। नानी, माँ और परदादी की परंपरा बरकरार रखते हुए, लीक पर चलने से भी इनकार किए रहीं।

पहली लड़की, जिसके लिए मन्नत मांगी गई थी, वह मैं नहीं, मेरी बड़ी बहन, मंजुल भगत थी। घर का नाम था–रानी, बाहर का मंजुल; लेखिका अवतार हुआ, मंजुल भगत। क्योंकि लिखना शादी के बाद शुरू किया और अपना नाम बदलकर पति का ग्रहण करने में कोई हीन भावना आड़े नहीं आई, इसलिए पैदाइशी जैन नाम छोड़ भगत बनीं। दूसरे नंबर पर मैं थी, घर का नाम उमा, बाहर का मृदुला। मैंने भी शादी के बाद लिखना शुरू किया सो बतौर लेखिका नाम चला मृदुला गर्ग। मुझे याद है, जब हमने लिखना शुरू किया, उससे कुछ पहले नारीवाद का चलन हुआ था। शादी के बाद नाम न बदलने का रिवाज उसी ने चलाया था। मन्नू भंडारी का हवाला देकर, हमसे पूछा भी जाता था कि आप लोग इतनी पोंगापंथी, घरघुस्सू क्यों हो? नाम क्यों बदला? हमारे पास इसका कोई ढंग का जवाब नहीं होता था। अब भी नहीं है। पर नाम बदलने से, अपने व्यक्तित्व का कोई नुकसान होते, मैंने नहीं देखा। पूछने को तो पिताजी से लोग यह भी पूछते थे, पाँच बेटियों से आपका मन नहीं भरा जो हर बेटी के दो–दो नाम रख छोड़े हैं। मुझसे छोटी बहन का घर का नाम है गौरी और बाहर का चित्रा। वह नहीं लिखती। उसका कहना है, वह इसलिए नहीं लिखती क्योंकि घर में कोई पढ़ने वाला भी तो चाहिए। खैर, उसके बाद जब चौथी–पाँचवीं बेटियाँ पैदा हुईं तो, पिता जी ने इतनी बात ज़माने की सुनी कि उनका एक–एक नाम ही रखा। रेणु और अचला। पाँच बहनों के बाद एक भाई हुआ, राजीव। मजे की बात यह है कि बीच की दो बहनें ही लेखन से बची रहीं। अचला और राजीव फिर उसमें जा फँसे। अचला मुझसे आठ साल छोटी है और वक्त के बदलाव की लाज रखते हुए, अंग्रेजी में लिखती है। पर राजीव फिर हिंदी के हवाले।

हम चार लिखते हैं और तमाम खानदान हमें पढ़ता है। मेरी ससुराल में मुझे कोई नहीं पढ़ता। इस तथ्य को हज़म करने में मुझे काफ़ी वक्त लगा। फिर उसके फ़ायदे भी नज़र आने लगे। कम–से–कम, घर के भीतर तो मुझे हिंदी आलोचना–बुद्धि से दो–चार नहीं होना पड़ता।


खैर, मैं अपनी नहीं, उन अ–देवियों की बात कहना चाहती हूँ, जो परदादी की मन्नत के नतीजतन धरती पर आईं और लेखक नहीं बनीं। जो बनीं, उन्हें साँस लेने की ज़रूरत कुछ ज्यादा हो, समझ में आता है, जैसा मेरे पिता जी ने एक बार मंजुल से कहा था। कोई दम नहीं घुटता, साँस लेने की ज़रूरत ही ज्यादा है। पर यहाँ तो, हम सेर तो गैर–लेखिका बहनें सवा सेर। चौथे नंबर वाली रेणु का आलम यह था कि गरमी की दुपहरी में स्कूल से वापसी पर, जब गाड़ी उसे और उससे छोटी बहन अचला को बस अड्डे से लेने जाती, तो रेणु उसमें बैठने से इनकार कर देती। उसका कहना था कि यूँ थोड़ा–सा रास्ता गाड़ी में बैठकर तय करना, सामंतशाही का प्रतीक था। जो शायद था। पर साथ ही पिता के अतिरिक्त लाड़ का भी। और रसोइये को खाना खिलाकर जल्दी फ़ारिंग‘ करने की लाचारी का भी। माँ तो सब चीज़ों से उदासीन रहती थीं पर पिता काफ़ी कुढ़ते–भुनते, जब देखते कि अचला गाड़ी में बैठी चली आ रही है और रेणु, पीछे–पीछे, पसीने में तरबतर, खरामा–खरामा । बचपन में एक बार चुनौती दिए जाने पर उसने जनरल थिमैया को पत्र लिखकर, उनका चित्र मँगवा लिया था, जो एक मोटरसाइकिल सवार जवान आकर, उसके हाथ में दे गया था। पड़ोस में उसका रुतबा काफ़ी बढ़ गया था। गाड़ी में बैठने के साथ, उसे इम्तिहान देने से भी परहेज़ था। स्कूल तो जैसे–तैसे पास कर लिया पर जब बी.ए. का इम्तिहान देने की बारी आई तो, वह अड़ गई। पहले मुझे समझाओ कि बी.ए. करना क्यों ज़रूरी है, तब मैं इम्तिहान दूँगी, अगर मुझे यकीन आ गया कि हाँ, कोई फ़ायदा है, वरना नहीं। हमने तरह–तरह के तर्क दिए, माँ ने कहा, पिता जी से पूछो।

पिता जी ने कहा, नौकरी कर पाओगी, शादी कर पाओगी, लोग इज़्ज़त से देखेंगे, वगैरह–वगैरह। कोई तर्क विश्वसनीय नहीं लगा. न रेणु को. न खुद उन्हें। आखिर उन्होंने उसी कुतर्क का सहारा लिया जो, युगों से, माँ–बाप के काम आता रहा है। कहा, बी.ए. करो, क्योंकि मैं कह रहा हूँ, करो। रेणु ने बी.ए. कर तो लिया पर सिर्फ पिता की खुशी के लिए, यानी पास होने लायक नंबर लाकर। सच बोलने में वह माँ से भी दो कदम आगे है। गनीमत यह है कि आधा समय उसके सच सुनकर लोग सोचते हैं, वह मज़ाक कर रही होगी इसलिए बिना मेहनत, वह लोगों को हँसाए रख लेती है। आज भी, उसे कोई इत्र भेंट करता है तो वह कहती है, “नहीं चाहिए। मैं तो नहाती हूँ।”


तीसरे नंबर पर चित्रा है। वह कालेज पढ़ने तो जाती थी पर खुद पढ़ने से ज्यादा दिलचस्पी, औरों को पढ़ाने में रखती थी। इसलिए इम्तिहान में उसके अंक कम और उसके शागिर्दो के ज़्यादा आते थे। पर अपने यहाँ सब चलता था। उसकी शादी का वक्त आया तो उसने एक नज़र में लड़का पसंद करके ऐलान कर दिया कि शादी करेगी तो उसी से। मुश्किल यह थी कि हमारे माँ–बाप ही नहीं, खुद लड़का भी उसके निर्णय से वाकिफ़ नहीं था। पर उसका कहना था, वह जो सोच लेती है, करके रहती है। तो उसकी शादी उसी लड़के से हुई। कोई मुश्किल पेश नहीं आई। आती क्यों? उसने कहा, “मैंने पहली मुलाकात में ही उसे बतला दिया था कि मैं जो सोच लेती हूँ, होकर रहता है।” तो उसने बात आगे खींची ही नहीं। पहली मुलाकात में ही हथियार डाल दिए।

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हममें सबसे छोटी बहन, अचला काफी दिनों तक कुछ कम खिसकी मालूम पड़ती रही। पिता का कहा मानकर, पहले अर्थशास्त्र किया, फिर पत्रकारिता में दाखिला लिया, ढंग से पढ़ाई की, पास हुई। फिर पिता की पसंद से शादी भी कर ली। पर उसके आगे लीक पर नहीं चल पाई। घरबार में मन ज्यादा रुचा नहीं और मंजुल और मेरी तरह उम्र के तीस बरस पार करते ही, लिखने का रोग लगा लिया।


एक बात हममें एक–सी रही। घरबार को परंपरागत तरीके से हमने भले न चलाया हो, उसे तोड़ा भी नहीं, शादी एक बार की और उसे कायम रखा। चाहे तलाक के कगार पर खड़ी चली हो पर कगार तोड़, डूबी नहीं। शायद इसलिए कि जैसा मैंने अपने पहले उपन्यास में लिख डाला था, हम सभी विश्वास करती रही होंगी कि मर्द बदलने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। घर के भीतर रहते हुए भी, अपनी मर्जी से जी लो, तो काफ़ी है।


शादी के बाद मैं बिहार के ऐसे छोटे कस्बे (डालमिया नगर) में रही, जहाँ मर्द–औरतें, चाहे पति–पत्नी क्यों न हों, पिक्चर देखने भी जाते तो अलग–अलग दड़बों में बैठते। मैं दिल्ली से कालेज की नौकरी छोड़कर वहाँ पहुँची थी और नाटकों में अभिनय करने की शौकीन रही थी। मैंने उनके चलन से हार नहीं मानी। सालभर के भीतर, उन्हीं शादीशुदा औरतों को पराए मर्दो के साथ नाटक करने के लिए मना लिया। अगले चार साल तक हमने कई नाटक किए। अकाल राहत कोष के लिए, उन्हीं के माध्यम से पैसा भी इकट्ठा किया।


वहाँ से निकली तो कर्नाटक के और भी छोटे कस्बे, बागलकोट में पहुँच गई। तब तक मेरे दो बच्चे हो चुके थे, जो स्कूल जाने लायक उम्र पर पहुँच रहे थे। पर वहाँ कोई ढंग का स्कूल नहीं था।


लोगों की राय पर, मैंने पास के कैथोलिक बिशप से दरख्वास्त की कि उनका मिशन, वहाँ के सीमेंट कारखाने की आर्थिक मदद से, हमारे कस्बे में एक प्राइमरी स्कूल खोल दे। पहले उन्होंने कहा, चूँकि उस प्रदेश में क्रिश्चियन जनसंख्या कम थी, इसलिए वे वहाँ स्कूल खोलने में असमर्थ थे। मैंने गैर–क्रिश्चियन बच्चों को भी शिक्षा पाने के लायक सिद्ध करते हुए, अपना इसरार जारी रखा। तब उन्होंने कहा, “हम कोशिश कर सकते हैं, बशर्ते आप हमें यकीन दिलाएँ कि वह स्कूल, अगले सौ बरसों तक चलता रहेगा।” मुझे गुस्सा आ गया। मैंने कहा, “स्कूल की छोड़िए, किसी के भी बारे में यकीन नहीं दिलाया जा सकता कि वह अगले सौ बरस तक चलेगा।” वे भी गुस्सा खा गए, बोले, “खुदा का लाख शुक्र है, बच्चों के न पढ़ पाने की समस्या आपकी है, मेरी नहीं।” बात कड़वी थी पर सौ फीसदी सच। सच के आगे सिर झुकाने की हमारी बचपन की आदत थी। सो मैंने तय किया कि मैं खुद, अंग्रेजी–हिंदी–कन्नड़, तीन भाषाएँ पढ़ाने वाला, प्राइमरी स्कूल वहाँ खोलूँगी और कर्नाटक सरकार से उसे मान्यता भी दिलवाऊँगी। वहाँ के अनेक मेहनती और खिसके लोगों की मदद से यह व्रत पूरा हुआ। मेरे बच्चे तथा अन्य अफ़सरों के बच्चे उसी स्कूल में पढ़े। बाद में अलग–अलग शहरों के अलग–अलग ख्यात स्कूलों में दाखिला भी पा गए।


ऐसे अनेक मौके आए, जब मैंने अपने जिद्दीपन के नमूने पेश किए। पर सबसे ज्यादा, उसने मंच पाया मेरे लेखन में, जो शुरू से अब तक लीक से खिसका, अपनी राह खुद तलाशता रहा है। पर सब कुछ कर लेने पर भी, मैं अपनी छोटी बहन रेणु के मुकाबिल नहीं पहुँच सकती। उन्नीस सौ पचास के अंतिम दौर में, एक रात दिल्ली में एक साथ नौ इंच बारिश हो गई। दिल्ली की खासियत यह रही है कि थोड़ा पानी बरसते ही, वहाँ के नाले–परनालों में बाढ़ आ जाती है, पुलों के नीचे पानी भर जाता है और तमाम यातायात ठप्प हो जाता है। इस कयामती बारिश के बाद तो सरकारी दफ्तरों के पहले तल्लों से, फ़ाइलें पानी में तैर आई थीं। अगली सुबह, किसी तरह का कोई वाहन सड़क पर नहीं निकला था। जाहिर है कि रेणु के स्कूल की बस भी उसे लेने नहीं आई। रेणु ने कहा, कोई बात नहीं, मैं पैदल चली जाऊँगी। सबने समझाया, स्कूल बंद होगा, मत जाओ। उसने कहा, आपको कैसे पता? इस सवाल का माकूल जवाब किसी के पास नहीं था। हमारे यहाँ फ़ोन जरूर लगा हुआ था। स्कूल में भी रहा होगा। पर बारिश के चलते, वह ठप्प पड़ा हुआ था। तो रेणु अकेली, पैदल, स्कूल चल दी। गनीमत यह थी कि बारिश, एकमुश्त बरस लेने के बाद, थम गई थी। सड़कों पर पानी था पर और बरस नहीं रहा था। तो रेणु दो मील पैदल चलकर स्कूल पहुँची। जैसा हमने कहा था, वह बंद था। चौकीदार रेणु को देख दंग रह गया। पर रेणु को कोई मलाल नहीं था। वह वापस दो मील चलकर घर पहुंच गई। सबने कहा, हमने पहले ही कहा था।


उसने कहा, “स्कूल बंद था तो मैं वापस आ गई, इसमें आपका कहना कहाँ से आ गया?”


सोचती हूँ, कैसे रोमांच का अनुभव हुआ होगा उसे, उस दिन। जगह–जगह पानी से लब–लब करते, सुनसान शहर में, निचाट अकेले, अपनी धुन में, मंज़िल की तरफ़ चलते चले जाना। सच, अकेलेपन का मज़ा ही कुछ और है।

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