Ridh ki Haddi class 9 hindi | रीढ़ की हड्डी |

 openclasses



reedh ki haddi pdf





reedh ki haddi class 9 summary

रीढ़ की हड्डी एकांकी का सारांश

       

 

          रीढ़ की हड्डी एकांकी श्री जगदीश चन्द्र माथुर द्वारा लिखित है। यह एकांकी लड़की (उमा) के विवाह की सामाजिक समस्या पर आधरित है।  'रीढ़ की हड्डी' कहानी में लेखक ने समाज में स्त्रियों के प्रति व्याप्त रूढ़िवादी मानसिकता पर प्रश्न-चिह्न उठाया है . साथ-ही-साथ स्त्रियों की शिक्षा एवं उससे उत्पन्न उनके आत्मविश्वास और साहस को दर्शाया है. इस एकांकी में  छह पात्र हैं–

उमा : लड़की
रामस्‍वरूप : लड़की का पिता
प्रेमा : लड़की की माँ
शंकर : लड़का
गोपालप्रसाद : लड़के का बाप
रतन : नौकर

उमा को देखने के लिए गोपाल प्रसाद और उनका लड़का शंकर आने वाले हैं। रामस्वरूप और उनका नौकर (रतन) कमरे को सजाने में लगे हुए हैं। तख़्त पर दरी और चादर बिछाकर, उस पर हारमोनियम रखा गया है। नाश्ता आदि भी तैयार किया जा रहा है। इतने में ही वहाँ प्रेमा आती है और कहती है कि तुम्हारी बेटी तो मुँह फुलाए पड़ी हुई है, तभी रामस्वरूप् कहते हैं कि उसकी माँ किस मर्ज की दवा है। जैसे–तैसे वे लोग मान गए हैं। अब तुम्हारी बेवकूफी से सारी मेहनत बेकार चली जाए तो मुझे दोष मत देना। तब प्रेमा कहती है, तुमने ही उसको पढ़ा–लिखाकर सिर चढ़ा लिया है। मैंने तो पौडर–वौडर उसके सामने लाकर रखा दिया है, पर वह इन सब चीज़ो से नफरत करती है। रामस्वरूप कहते हैं, न जाने इसका दिमाग कैसा है।


उमा बी॰ए॰ तक पढ़ी हुई है, परंतु रामस्वरूप लड़के वालों को दसवीं पास तक ही पढ़ी बताते हैं क्योंकि लड़के वालों को कम पढ़ी–लिखी लड़की ही चाहिए। नाश्ते में टोस्ट रखने के लिए मक्खन नहीं है। रामस्वरूप ने नौकर रतन को मक्खन लाने के लिए भेज दिया है। बाहर जाते हुए रतन देखता है कि कोई घर की ओर आ रहा है। वह मालिक को बताता ही है कि थोड़ी देर में दरवाजा खटखटाने की आवाज आती है और दरवाजा खुलने पर गोपाल प्रसाद और उनका लड़का शंकर अंदर आते हैं। रामस्वरूप उन दोनों लोगों का स्वागत करते हैं। दोनों बैठकर अपने ज़माने की तुलना नए ज़माने से करते हैं। अपनी आवाज़ और तरीके को बदलते हुए गोपाल प्रसाद कहते हैं, अच्छा तो साहब ‘बिजनेस‘ की बातचीत की जाए। वे शादी–विवाह को एक ‘बिजनेस‘ मानते हैं।


रामस्वरूप उमा को बुलाने के लिए अंदर जाते हैं तभी पीछे से गोपाल प्रसाद अपने बेटे शंकर से कहते हैं कि आदमी तो भला है। मकान–वकान से तो इन लोगों की हैसियत बुरी नहीं लगती है, पर यह तो पता चले कि लड़की कैसी है? गोपाल प्रसाद अपने बेटे को झुककर बैठने पर डाँटते हैं। रामस्वरूप दोनों को नाश्ता कराते हैं और इधर-उधर की बातें भी करते हैं। गोपाल प्रसाद लड़की की सुंदरता के बारे में पूछते हैं तो रामस्वरूप कहते हैं कि वह तो आप खुद ही देख लीजिएगा। फिर जन्मपत्रियों के मिलाने की बात चलती है तो रामस्वरूप कहते हैं कि मैंने उन्हें भगवान के चरणों में रख दिया है, आप उन्हें मिला हुआ ही समझ लीजिए। बातचीत के साथ ही गोपाल प्रसाद लड़की की पढ़ाई–लिखाई के बारे में भी पूछना चाहते हैं। वे कहते हैं कि हमें तो मैट्रिक पास बहू चाहिए। मुझे उससे नौकरी तो करानी नहीं है।


उमा को बुलाने पर वह सिर झुकाकर तथा हाथ में पान की तश्तरी लेकर आती है। उमा के पहने चश्मे को देखकर गोपाल प्रसाद और शंकर दोनों ही एक साथ बोलते हैं–चश्मा! रामस्वरूप उमा के चश्मा लगाने की वजह को स्पष्ट कर देते हैं। दोनों ही संतुष्ट हो जाते हैं। गोपाल प्रसाद उमा की चाल और चेहरे की छवि देखते हुए गाने–बजाने के बारे में भी पूछते हैं। तब उमा सितार उठाकर गीत सुनाती है और उमा की नज़र उस लड़के पर पड़ती है तो वह उसे पहचान कर गाना बदं कर देती है। फिर उमा से गोपाल प्रसाद उसकी पेंटिंग–सिलाई के बारे में पूछते है तो इसका उत्तर रामस्वरूप दे देते हैं। तब गोपाल प्रसाद उमा से कुछ इनाम–विनाम जीतने के संबंध में पूछते हुए उमा को ही उत्तर देने के लिए कहते हैं। रामस्वरूप भी उमा को ही जवाब देने के लिए कहते हैं।

और मज़बूत आवाज में मैं क्या जवाब दूं, बाबूजी। जब कुर्सी–मेज़ बेची जाती है, तब दुकानदार मेज़–कुर्सी से कुछ नहीं पूछता है , केवल खरीददार को दिखा देता है। पसंद आ जाता है तो अच्छा, वरना……। रामस्वरूप क्रोधित होकर उमा को डाँटते हैं।


उमा बोलती है अब मुझे कहने दीजिए, बाबूजी। …… ये जो महाशय मुझे खरीदने के लिए आए हैं, ज़रा इनसे भी तो पूछिए कि क्या लड़कियों के दिल नहीं होता? क्या उनको चोट नहीं लगती है?


गोपाल प्रसाद गुस्से में आकर रामस्वरूप बाबू से कहते है कि, क्या आपने मुझे मेरी इज्ज़त उतारने के लिए यहाँ बुलाया था? तभी उमा गोपाल प्रसाद से कहती है कि आप इतनी देर से मेरी नाप–तोल कर रहे हैं, इसमें हमारी बेइज्जती नहीं हुई? और ज़रा अपने साहबजादे से पूछिए कि अभी पिछली फरवरी में ये लड़कियों के होस्टल के आस–पास क्यों चक्कर काट रहे थे? और ये वहाँ से केसे भगाए गए थे?


गोपाल प्रसाद उमा से कहते है कि तो क्या तुम कॉलेज में पढ़ी हो? उमा बोलती है-हाँ, मैं पढ़ी हूँ। मैंने बी ए पास किया है। मैंने न तो कोई चोरी की और न ही आपके पुत्र की तरह इधर–उधर ताक–झाँक कर कायरता का प्रदर्शन किया है। गोपाल प्रसाद खड़े हो जाते हैं और रामस्वरूप को बुरा–भला कहते हुए, अपने बेटे के साथ दरवाजे की ओर बढ़ते हैं।


उमा पीछे से कहती है कि जाइए, जरूर जाइए। घर जाकर जरा यह पता लगाइए कि आपके लाडले बेटे की रीढ़ की हड्डी है भी या नहीं। गोपाल प्रसाद और उनका लड़का दरवाज़े से बाहर चले जाते हैं और प्रेमा आती है। उमा रो रही है। यह सुनकर रामस्वरूप खड़े हो जाते हैं।

रतन आते हुए बोलता है बाबू जी, मक्खन! सभी उसकी तरफ देखने लगते हैं और एकांकी समाप्त हो जाता है।



Text Book Audio








सारांश 





शब्दार्थ



  • अधेड़- 40 और 50 वर्ष की उम्र वाला व्यक्ति
  • अक्ल- बुद्धि
  • पसीना बहाना- परिश्रम करना
  • कलसा - घड़ा
  • गंदुमी-गेहुँए
  • भीगी बिल्ली की तरह- डरा हुआ
  • डाट- लकड़ी का अवरोध जो ढक्कन का काम करता है
  • कोठरी- छोटा कमरा
  • मुँह फुलाए- नाराज, गुस्से से भरी
  • सिर चढ़ाना- अधिक बढ़ावा देना
  • जंजाल- मुश्किलें, परेशानी
  • लक्षण- लक्षण, संकेत
  • सूझना- दिखाई देना, करना
  • राह पर लाना- अपने मनचाहा आचरण करवाना,सही रास्ता दिखाना
  • टीमटाम- तौर तरीके, दिखावा
  • नफरत- घृणा
  • बाज आना- विवश हो जाना, हार जाना
  • इंट्रेंस- 12वी से नीचे की कक्षा
  • हाथ रहना- नियंत्रण में रहना
  • उगल देना- कहना, बकना
  • एकाध- एक या दो या थोड़ी-सी
  • करीने से- उचित तरीके से
  • दकियानूसी ख्याल-अत्यंत घिसी पिटी ,पुराने विचार
  • सवा सेर -और भी ज्यादा बढ़कर
  • तालीम -शिक्षा,
  • कोरी-कोरी -खरी-खरी , साफ-साफ
  • चौपट करना -बर्बाद करना
  • लोक चतुराई- समाज द्वारा व्यवहार में लाया जाने वाला सयानापन
  • टपकना -दिख जाना, प्रदर्शित होना
  • फितरती - मतलबी होना
  • खींस निपोरना- बेमतलब हँसते रहना
  • खासियत - विशेषता
  • तशरीफ़ लाइए -बैठिए
  • खँखारकर - गला साफ करते हुए ,
  • काँटों में घसीटना- मुश्किलों में डालना
  • मुखातिब होकर- मुँह घुमाकर उसकी ओर देखते हुए
  • वीकेंड- सप्ताहांत( सप्ताह के अंत में )
  • मार्जिन- अंतर, फासला
  • उड़ा जाना -खा जाना ,खत्म कर देना
  • मजाल -ताकत,हिम्मत
  • सिटिंग- बैठे रहना
  • मेट्रिक- दसवीं
  • फर्राटे की -बिना रुके, धाराप्रवाह
  • जब्त करना -रोके रख पाना
  • रंगीन -मौज मस्ती से भरपूर
  • तकल्लुफ -तकलीफ उठाना
  • काबिल -योग्य
  • हैसियत -सामर्थ्य
  • बैकबोन -रीड की हड्डी
  • विलायती -विदेशी
  • जायका - स्वाद
  • चूँ न करना- तनिक भी विरोध न करना, कुछ भी न बोलना
  • स्टैंडर्ड -स्तर
  • माफिक- अनुसार
  • बेढब होना - बिगड़ जाना, कोई मापदंड ना रह जाना,
  • निहायत -अत्यंत, बहुत ही
  • राजी- सहमत
  • जायचा - जन्म कुंडली, जन्म पत्री
  • भनक पड़ना -किसी तरीके से थोड़ा बहुत सुनाई देना
  • ग्रेजुएट- 12वीं के बाद 3 साल की पढ़ाई से मिलने वाली डिग्री
  • अक्ल के ठेकेदार -स्वयं को पढ़ा लिखा समझने वाला
  • काबिल होना -योग्य होना
  • पॉलिटिक्स -राजनीति
  • गृहस्थी- घर परिवार संबंधी
  • तालीम-शिक्षा
  • आँखें गड़ाकर- बहुत ध्यान से देखना
  • अर्ज किया- प्रार्थना की, अनुरोध किया
  • संतुष्ट -तसल्ली युक्त
  • तल्लीनता- किसी काम में रम जाने का भाव
  • झेंपती हुई- शर्माती हुई, लजाती हुई
  • अधीर होना -बेचैन होना
  • मुँह खोलना -बोलना
  • खरीददार -खरीदने वाला
  • बेबस - लाचार
  • कसाई- जानवरों को मारकर बेचने वाला
  • नापतोल करना- एक-एक चीज़ ध्यान से देखना
  • साहबजादे -पुत्र
  • हॉस्टल -छात्रावास
  • ताक-झाँक - चोरी-छिपे देखना
  • कायरता -डर जाने का भाव
  • मुँह छिपाकर भागना- शर्मिंदा होकर भागना
  • गजब हो जाता - बहुत बुरा हो जाता
  • रुलासपन- रोने का भाव

'वाख' पाठ की अध्ययन सामग्री पढ़ने के लिए क्लिक करें  


reedh ki haddi questions and answers

Q&A



प्रश्न 1 : रामस्वरूप और गोपाल प्रसाद बात-बात पर “एक हमारा ज़माना था…” कहकर अपने समय की तुलना वर्तमान समय से करते हैं। इस प्रकार की तुलना करना कहाँ तक तर्कसंगत है?
उत्तर : इस तरह की तुलना करना बिल्कुल तर्कसंगत नहीं होता। क्योंकि समय के साथ समाज में, जलवायु में, खान-पान में सब में परिवर्तन होता रहता है। जैसे – उस वक्त की वस्तुओं की गुणवत्ता हमें आज प्राप्त नहीं होती। उस समय का स्वच्छ वातावरण या जलवायु हमें आज प्राप्त नहीं होता, तो हम कैसे कल की तुलना आज से कर सकते हैं? समय परिवर्तनशील है वह सदैव एक सा नहीं रहता समय के साथ हुए बदलाव को स्वीकार करने में ही भलाई है न कि उसकी तुलना बीते हुए कल से करने में।


प्रश्न 2 :रामस्वरूप का अपनी बेटी को उच्च शिक्षा दिलवाना और विवाह के लिए छिपाना, यह विरोधाभास उनकी किस विवशता को उजागर करता है?
उत्तर :रामस्वरुप एक आज़ाद पसंद व्यक्ति थे। उनके अनुसार स्त्री शिक्षा में कोई बुराई नहीं अपितु उनके विकास के लिए यह आवश्यक है। यही कारण था कि उन्होंने अपनी पुत्री को विकास के सारे रास्ते दिए जिसके कारणवश उनकी पुत्री B.A कर सकी। वह गुणी भी थी, संगीत शिक्षा, सिलाई-कढ़ाई में भी निपुण थी। यह बातें रामस्वरुप के खुले विचारों की ओर इशारा करते हैं। परन्तु विडम्बना देखिए कि उन्होंने जहाँ उन्मुक्त भाव से अपनी पुत्री को शिक्षा दी थी वहीं समाज की संकुचित मानसिकता के कारण अपनी पुत्री के विवाह के लिए उसकी शिक्षा को छुपाना चाह रहे थे। यह एक मजबूर पिता की ओर इशारा करता है जो समाज की दकियानूसी सोच के आगे झुकने पर विवश हो जाता है।


प्रश्न 3 : अपनी बेटी का रिश्ता तय करने के लिए रामस्वरूप उमा से जिस प्रकार के व्यवहार की अपेक्षा कर रहे हैं, वह उचित क्यों नहीं है?
उत्तर : बेटी का रिश्ता तय करने के लिए रामस्वरुप अपनी बेटी उमा से सीधी-साधी, कम पढ़ी लिखी और कम बोलने वाली लड़की की तरह व्यवहार करने की अपेक्षा कर रहे थे। उनका ऐसा सोचना उचित नहीं है क्योंकि लड़की कोई भेड़-बकरी या मेज़-कुर्सी नहीं होती है। वो कोई कठपुतली भी नहीं होती, जिसे हम अपने इशारों पर नचा सकें। उनका भी दिल होता है। उच्च शिक्षा पाना कोई अपराध नहीं है जिसकी वज़ह से उसे शर्मिंदा होना पड़े और अपनी योग्यता को छुपाना पड़े।


प्रश्न 4 : गोपाल प्रसाद विवाह को ‘बिज़नेस’ मानते हैं और रामस्वरूप अपनी बेटी की उच्च शिक्षा छिपाते हैं। क्या आप मानते हैं कि दोनों ही समान रूप से अपराधी हैं? अपने विचार लिखें।
उत्तर : दोनों ही समान रुप से अपराधी हैं। गोपाल प्रसाद जी के लिए विवाह बिज़नेस (व्यापार-धंधे) कि तरह है। विवाह की पवित्रता और उसका मूल्य उनके लिए सौदे से कम नहीं था। वह अपने बेटे का विवाह करवा कर एक ऐसी पुत्रवधू लाना चाहते थे जो उनके इशारों पर चले। वे सौदा करने से पहले उसकी जाँच पड़ताल कर तसल्ली कर लेना चाहते थे कि सौदा सही भी है या नहीं। उनके लिए वस्तु और लड़की में कोई अंतर नहीं था।

दूसरी तरफ़ रामस्वरूप जी अपनी पुत्री को उच्च शिक्षा प्राप्त करवाते हैं। उन्हें इस बात से गर्व भी है, परन्तु उसके विवाह के लिए उसकी शिक्षा को छुपाने की कोशिश करते हैं। माना इन सब में उनकी मजबूरी है परन्तु ये तर्कसंगत नहीं लगता कि ऐसे घर में अपनी शिक्षित लड़की का हाथ सौंपने को तैयार हो गए जहाँ उनकी पुत्री व उसकी शिक्षा का मोल ही न हो। इस तरह से स्वयं समाज को बदलना और बाद में अपने स्वार्थ हित या मजबूरी से उसकी संकीर्णता में शामिल होना पूर्णरुप से गलत है और उस पर झूठ बोलना बिल्कुल तर्कसंगत नहीं लगता।


प्रश्न 5 : “…आपके लाड़ले बेटे की रीढ़ की हड्डी भी है या नहीं…” उमा इस कथन के माध्यम से शंकर की किन कमियों की ओर संकेत करना चाहती है?
उत्तर : उमा गोपाल प्रसाद जी के विचारों से पहले से ही खिन्न थी। परन्तु उनके द्वारा अनगिनत सवालों ने उसे क्रोधित कर दिया था। आखिर उसे अपनी चुप्पी को तोड़कर गोपाल प्रसाद को उनके पुत्र के विषय में अवगत करना पड़ा।

(1) शंकर एक चरित्रहीन व्यक्ति था। जो हमेशा लड़कियों का पीछा करते हुए होस्टल तक पहुँच जाता था। इस कारण उसे शर्मिंदा भी होना पड़ा था।

(2) दूसरी तरफ़ उसकी पीठ की तरफ़ इशारा कर वह गोपाल जी को उनके लड़के के स्वास्थ्य की ओर संकेत करती है। जिसके कारण वह बीमार रहता है तथा सीधी तरह बैठ नहीं पाता।

(3) शंकर अपने पिता पर पूरी तरह आश्रित है। उसकी रीढ़ की हड्डी नहीं है अर्थात् उसकी अपनी कोई मर्ज़ी नहीं है।


प्रश्न 6 : शंकर जैसे लड़के या उमा जैसी लड़की – समाज को कैसे व्यक्तित्व की ज़रूरत है? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर : उमा जैसी लड़की ही समाज के लिए सही व्यक्तित्व है। वह निडर है, साहसी भी है। जहाँ एक ओर माता-पिता का सम्मान रखते हुए वह गोपाल प्रसाद जी व उनके लड़के शंकर के सम्मुख खड़ी हो जाती है, उनके कहने पर वह गीत भी गाती है तो दूसरी तरफ़ निर्भयता पूर्वक गोपाल जी को उनकी कमियों का एहसास कराते हुए तनिक भी नहीं हिचकती। उसमें आत्मसम्मान की भावना है। उसी आत्मसम्मान के लिए वह अपना मुँह भी खोलती है।


प्रश्न 7 : ‘रीढ़ की हड्डी’ शीर्षक की सार्थकता स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : यह शीर्षक एकांकी की भावना को व्यक्त करने के लिए बिल्कुल सही है. इस शीर्षक ने  समाज की सड़ी-गली मानसिकता को व्यक्त किया तथा उस पर प्रहार भी किया है क्योंकि समय के अनुसार पुरानी रीतियों और परंपराओं का बदलना आवश्यक है. यह समय की माँग होती है. जब यह रीतियाँ या परंपराएँ मनुष्य के हित के स्थान पर उसका अहित करने लगें  तो वे विकार (रोग) बन जाती हैं. यह एंकाकी समाज में व्याप्त इन विकारों पर कटाक्ष करती है. हमारा समाज इन मानसिकताओं का गुलाम बनकर बिना रीढ़ वाला शरीर हो जाता है. दूसरी तरफ़ यहाँ शंकर जैसे लड़कों से भी यही तात्पर्य है बिना रीढ़ का। इस प्रकार के लड़कों का अपना कोई व्यक्तित्व नहीं होता और न ही इनका कोई चरित्र होता है. ये सारी उम्र दूसरों के इशारों पर ही चलते हैं. ये लोग समाज के ऊपर सिवाए बोझ के कुछ नहीं होते इसलिए उमा ने इसे बिना रीढ़ की हड्डी वाला कहा है।

जिस प्रकार मानव शरीर में ‘रीढ़ की हड्डी’ (बैकबोन) अत्यंत महत्वपूर्ण अंग होता है . रीढ़ की हड्डी शरीर के संतुलन के लिए जरुरी है . जिसके अभाव में या कमजोर होने पर व्यक्ति सीधा खड़ा भी नहीं हो सकता है . जिस प्रकार व्यक्ति को सीधा खड़ा होने के लिए रीढ़ की हड्डी की मजबूती आवश्यक है उसी प्रकार समाज में मानसिक संतुलन और चारित्रिक दृढ़ता के लिए वैचारिक रीढ़ की हड्डी होना जरुरी है . हमारे समाज में नारी का रीढ़ की हड्डी जैसा महत्वपूर्ण स्थान है. समाज में नारी को उचित स्थान न मिल पाना समाज की बैकबोन को कमजोर करता है. नारी की उन्नति तथा समाज में उचित स्थान दिए बिना समाज मजबूत नहीं हो सकता है . उमा के विवाह के लिए रामस्वरूप जिस लड़के से रिश्ता तय करते हैं उस लड़के (शंकर) की कमर भी झुकी रहती है उसकी शारीरिक बनावट भी बहुत अच्छी नहीं दिखती . ऐसा लगता है कि उसकी रीढ़ की हड्डी झुकी हुई है इसके अलावा शंकर के चरित्र की कमजोरी को भी रीढ़ की हड्डी न होने की बात कह कर गया है इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शीर्षक रीढ़ की हड्डी पूर्णतया सार्थक है.

'माटीवाली' पाठ की अध्ययन सामग्री पढ़ने के लिए क्लिक करें  


रीढ़ की हड्डी के प्रतीकार्थ 


रीढ़ की हड्डी मानसिकता का  प्रतीक है.
यह उत्तम चरित्र का प्रतीक है.
यह निर्णय लेने की क्षमता का द्योतक है.
यह अन्याय का विरोध करने का सूचक है.
यह सही समय पर सही बात बोलने का पैमाना है.
यह शिक्षा की उपादेयता को प्रकट करने वाला उपादान है.
यह स्वाभिमान को बनाए रखने का एक तरीका है.
यह अपनी भूमिका साबित करने का एक वक्त है.
यह भीड़ में खो जाने के बदले भीड़ से अलग हटकर अपना नाम बनाने की जिद है.
यह मान मर्यादा एवं उचित व्यवहार का एक खाका है.
यह अपने परिवार व समाज में अपनी भूमिका निभाने की एक प्रेरणा है.
यह नारी सशक्तिकरण का बिगुल है.
यह अपने दायरे में रहते हुए अनुचित को उचित राह दिखाने वाला संकेत सूचक है.
यह उस इच्छाशक्ति का सूचक है जो सकारात्मक भावों से संचालित होती है.
यह स्वतंत्रता को संजोए हुए सुनहरे भविष्य की इबारत है.
रीढ़ की हड्डी एक नींव है जिस पर अपनी इच्छा से सफलता की इमारत खड़ी की जानी है .
यह लिजलिजेपन के खिलाफ़ सम्यक आचरण का नाद है .
यह अन्याय के धुएँ को चीरता हुआ झंझावात है .



प्रश्न 8 : कथावस्तु के आधार पर आप किसे एकांकी का मुख्य पात्र मानते हैं और क्यों?
उत्तर : कथावस्तु के आधार पर तो हमें उमा ही इस एकांकी की मुख्य पात्र लगती है। पूरी एकांकी ही उमा के इर्द-गिर्द घूमती है। लेखक समाज की सड़ी गली मानसिकता को उमा के माध्यम से व्यक्त करना चाहता है। उसका सशक्त व्यक्तित्व सारे पात्रों पर भारी पड़ता हुआ दिखाई देता है। उसके समकक्ष कोई भी ठहरता नहीं है। जिस स्वाभिमान से वह अपने पक्ष को शंकर, गोपाल प्रसाद व रामस्वरुप के आगे रखती है सब के होंठ सिल जाते हैं और कथा का प्रयोजन समाज में महिलाओं को अपने अधिकारों व सम्मान के प्रति जागरूक करना सिद्ध हो जाता है।


प्रश्न 9 : एकांकी के आधार पर रामस्वरूप और गोपाल प्रसाद की चारित्रिक विशेषताएँ बताइए।
उत्तर : रामस्वरूप जी और गोपाल प्रसाद जी की चारित्रिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं –

रामस्वरूप :- रामस्वरुप एक स्वतंत्रता प्रिय व्यक्ति हैं। वे औरतों की शिक्षा के पक्षपाती हैं। इसलिए अपनी पुत्री को भी पुत्र के समान ही उच्च शिक्षा दिलवाते हैं। वे एक स्नेही पिता हैं। रामस्वरुप जी अपनी पुत्री से बड़ा स्नेह करते हैं इसलिए उसके भविष्य की चिंता उन्हें सताती रहती है और इसी कारणवश वह अपनी पुत्री की शिक्षा भी लड़के वालों के आगे छिपा जाते हैं। रामस्वरुप जी समझदार व्यक्ति हैं। वे कई जगह गोपाल प्रसाद जी की गलत बातों का जवाब भी समझदारी पूर्वक देते हैं।

गोपाल प्रसाद :- गोपाल प्रसाद एक रोबदार व्यक्तित्व के स्वामी हैं। वकालत में होने के कारण अभिमान उनके व्यक्तित्व से टपकता है। गोपाल जी एक हँसमुख प्रवृति के इंसान हैं। बात-बात पर मज़ाक करना उनका स्वभाव है। गोपाल प्रसाद जी एक चतुर व्यक्ति हैं इसलिए अपने बीमार व चरित्रहीन बेटे के लिए एक कम पढ़ी-लिखी लड़की चाहते हैं ताकि वो कभी उसके सम्मुख आवाज़ न उठा सके।


प्रश्न 10 : इस एकांकी का क्या उद्देश्य है? लिखिए।
उत्तर : इस एकांकी का उद्देश्य समाज में औरतों की दशा को सुधारना व उनको उनके अधिकारों के प्रति जागरूक कराना है। यह एकांकी उन लोगों की तरफ़ अँगुली उठाती है जो समाज में स्त्रियों को जानवरों या सामान से ज़्यादा कुछ नहीं समझते। जिनके लिए वह घर में सजाने से ज़्यादा कुछ नहीं है यह औरत को उसके व्यक्तित्व की रक्षा करने का संदेश देती है और कई सीमा तक इस उद्देश्य में सफल भी होती है।


प्रश्न 11 : समाज में महिलाओं को उचित गरिमा दिलाने हेतु आप कौन-कौन से प्रयास कर सकते हैं?
उत्तर : हम उनको गरिमा दिलाने हेतु निम्नलिखित प्रयास कर सकते हैं –

  • उनकी शिक्षा  हेतु कार्य कर सकते हैं ताकि समाज में वे  सर उठा कर अपना जीवन व्यतीत कर सकें।
  • उनको, उनके अधिकारों के प्रति जागरुक करा सकते हैं ताकि वे अपना शोषण होने से स्वयं को बचा सकें।
  • समाज में महिला को समान भागीदारी दिलवाने के लिए प्रयत्न कर सकते हैं।
  • लड़कियों का विवाह बिना दहेज लिए व दिए हो, इस विषय पर कार्य कर सकते हैं।
  • हम अपने समय की महान एवं विदुषी स्त्रियों का उदाहरण समाज के सामने प्रस्तुत कर सकते हैं.
  • हमें महिलाओं को उचित सम्मान देना ही चाहिए।
  • महिलाओं को अपनी इच्छा के अनुसार हर क्षेत्र में आगे बढ़ने का प्रोत्साहन देना चाहिए।

'सवैये ' पाठ की अध्ययन सामग्री पढ़ने के लिए क्लिक करें 




रीढ़ की हड्डी – जगदीशचंद्र माथुर

(एकांकी )


पात्र-परिचय 

उमा : लड़की
रामस्‍वरूप : लड़की का पिता
प्रेमा : लड़की की माँ
शंकर : लड़का
गोपालप्रसाद : लड़के का बाप
रतन : नौकर

मामूली तरह से सजा हुआ एक कमरा। अंदर के दरवाज़े से आते हुए जिन महाशय की पीठ नज़र आ रही है वे अधेड़ उम्र के मालूम होते हैं, एक तख्त को पकड़े हुए पीछे की ओर चलते-चलते कमरे में आते हैं। तख्त का दूसरा सिरा उनके नौकर ने पकड़ रखा है।

बाबू : अबे धीरे-धीरे चल …अब तख्त को उधर मोड़ दे…उधर…बस, बस!

नौकर : बिछा दूँ साहब?

बाबू : (ज़रा तेज़ आवाज़ में) और क्या करेगा? परमात्मा के यहाँ अक्ल बँट

रही थी तो तू देर से पहुंचा था क्या?…बिछा दूँ साब!…और यह

पसीना किसलिए बहाया है?

नौकर : (तख्त बिछाता है) ही-ही-ही।

बाबू : हँसता क्यों है?…अबे, हमने भी जवानी में कसरतें की हैं, कलसों से नहाता था लोटों की तरह। यह तख्त क्या चीज़ है?…उसे सीधा कर …यों …हाँ बस। …और सुन, बहू जी से दरी माँग ला, इसके ऊपर बिछाने के लिए। चद्दर भी, कल जो धोबी के यहाँ से आई है, वही। (नौकर जाता है। बाबू साहब इस बीच में मेज़पोश ठीक करते हैं। एक झाड़न से गुलदस्ते को साफ़ करते हैं। कुर्सियों पर भी दो चार हाथ लगाते हैं। सहसा घर की मालकिन प्रेमा आती हैं। गंदुमी रंग, छोटा कद। चेहरे और आवाज़ से ज़ाहिर होता है किसी काम में बहुत व्यस्त हैं। उनके पीछे-पीछे भीगी बिल्ली की तरह नौकर आ रहा है-खाली हाथ। बाबू साहब (रामस्वरूप) दोनों तरफ़ देखने लगते हैं….)

प्रेमा : मैं कहती हूँ तुम्हें इस वक्त धोती की क्या ज़रूरत पड़ गई! एक तो वैसे ही जल्दी-जल्दी में….

रामस्वरूप : धोती?


प्रेमा : हाँ, अभी तो बदलकर आए हो, और फिर न जाने किसलिए…

रामस्वरूप : लेकिन तुमसे धोती माँगी किसने?

प्रेमा : यही तो कह रहा था रतन।

रामस्वरूप : क्यों बे रतन, तेरे कानों में डाट लगी है क्या? मैंने कहा था-धोबी के यहाँ से जो चद्दर आई है, उसे माँग ला…अब तेरे लिए दूसरा दिमाग कहाँ से लाऊँ। उल्लू कहीं का।

प्रेमा : अच्छा, जा पूजावाली कोठरी में लकड़ी के बक्स के ऊपर धुले हुए कपड़े रखे हैं न! उन्हीं में से एक चद्दर उठा ला।

रतन : और दरी?

प्रेमा : दरी यहीं तो रक्खी है, कोने में। वह पड़ी तो है।

रामस्वरूप : (दरी उठाते हुए) और बीबी जी के कमरे में से हरिमोनियम उठा ला, और सितार भी।…जल्दी जा।।

(रतन जाता है। पति-पत्नी तख्त पर दरी बिछाते हैं।)

प्रेमा : लेकिन वह तुम्हारी लाडली बेटी तो मुँह फुलाए पड़ी है।


रामस्वरूप : मुँह फुलाए!…और तुम उसकी माँ, किस मर्ज की दवा हो? जैसे-तैसे करके तो वे लोग पकड़ में आए हैं। अब तुम्हारी बेवकूफ़ी से सारी मेहनत बेकार जाए तो मुझे दोष मत देना।

प्रेमा : तो मैं ही क्या करूँ? सारे जतन करके तो हार गई। तुम्हीं ने उसे पढ़ा-लिखाकर इतना सिर चढ़ा रखा है। मेरी समझ में तो ये पढ़ाई-लिखाई के जंजाल आते नहीं। अपना ज़माना अच्छा था। ‘आ ई‘ पढ़ ली, गिनती सीख ली और बहुत हुआ तो ‘स्त्री-सुबोधिनी‘ पढ़ ली। सच पूछो तो ‘स्त्री-सुबोधिनी‘ में ऐसी-ऐसी बातें लिखी हैं-ऐसी बातें कि क्या तुम्हारी बी.ए., एम.ए. की पढ़ाई होगी। और आजकल के तो लच्छन ही अनोखे हैं….

रामस्वरूप : ग्रामोफ़ोन बाजा होता है न?

प्रेमा : क्यों?

रामस्वरूप : दो तरह का होता है। एक तो आदमी का बनाया हुआ। उसे एक बार चलाकर जब चाहे तब रोक लो। और दूसरा परमात्मा का बनाया हुआ। रिकार्ड एक बार चढ़ा तो रुकने का नाम नहीं।

प्रेमा : हटो भी। तुम्हें ठठोली ही सूझती रहती है। यह तो होता नहीं कि उस अपनी उमा को राह पर लाते। अब देर ही कितनी रही है उन लोगों के आने में।

रामस्वरूप : तो हुआ क्या?

प्रेमा : तुम्हीं ने तो कहा था कि ज़रा ठीक-ठाक करके नीचे लाना। आजकल तो लड़की कितनी ही सुंदर हो, बिना टीमटाम के भला कौन पूछता है? इसी मारे मैंने तो पौडर-वौडर उसके सामने रखा था। पर उसे तो इन चीजों से न जाने किस जन्म की नफ़रत है। मेरा कहना था कि आँचल में मुँह लपेटकर लेट गई। भई, मैं बाज़ आई तुम्हारी इस लड़की से!

रामस्वरूप : न जाने कैसा इसका दिमाग है! वरना आजकल की लड़कियों के सहारे तो पौडर का कारबार चलता है।

प्रेमा : अरे मैंने तो पहले ही कहा था। इंट्रेन्स ही पास करा देते-लड़की अपने हाथ रहती, और इतनी परेशानी न उठानी पड़ती। पर तुम तो…


रामस्वरूप : (बात काटकर) चुप चुप… (दरवाज़े में झाँकते हुए) तुम्हें कतई अपनी ज़बान पर काबू नहीं है। कल ही यह बता दिया था कि उन सब लोगों के सामने ज़िक्र और ढंग से होगा। मगर तुम तो अभी से सब-कुछ उगले देती हो। उनके आने तक तो न जाने क्या हाल करोगी!

प्रेमा : अच्छा बाबा, मैं न बोलूँगी। जैसी तुम्हारी मर्जी हो, करना। बस मुझे तो मेरा काम बता दो।

रामस्वरूप : तो उमा को जैसे हो तैयार कर लो। न सही पौडर। वैसे कौन बरी है। पान लेकर भेज देना उसे। और, नाश्ता तो तैयार है न? (रतन का आना) आ गया रतन?..इधर ला, इधर! बाजा नीचे रख दे। चद्दर खोल… पकड़ तो ज़रा उधर से।

(चद्दर बिछाते हैं।)

प्रेमा : नाश्ता तो तैयार है। मिठाई तो वे लोग ज़्यादा खाएँगे नहीं। कुछ नमकीन चीजें बना दी हैं। फल रखे हैं ही। चाय तैयार है, और टोस्ट भी। मगर हाँ, मक्खन? मक्खन तो आया ही नहीं।

रामस्वरूप : क्या कहा? मक्खन नहीं आया? तुम्हें भी किस वक्त याद आई है। जानती हो कि मक्खन वाले की दुकान दूर है, पर तुम्हें तो ठीक वक्त पर कोई बात सूझती ही नहीं। अब बताओ, रतन मक्खन लाए कि यहाँ का काम करे। दफ़्तर के चपरासी से कहा था आने के लिए, सो नखरों के मारे…

प्रेमा : यहाँ का काम कौन ज्यादा है? कमरा तो सब ठीक-ठाक है ही। बाजा-सितार आ ही गया। नाश्ता यहाँ बराबर वाले कमरे में ट्रे में रखा हुआ है, सो तुम्हें पकड़ा दूंगी। एकाध चीज़ खुद ले आना। इतनी देर में रतन मक्खन ले ही आएगा…दो आदमी ही तो हैं।

रामस्वरूप : हाँ एक तो बाबू गोपाल प्रसाद और दूसरा खुद लड़का है। देखो, उमा से कह देना कि ज़रा करीने से आए। ये लोग ज़रा ऐसे ही है…गुस्सा तो मुझे बहुत आता है इनके दकियानूसी खयालों पर। खुद पढ़े-लिखे हैं, वकील हैं, सभा-सोसाइटियों में जाते हैं, मगर लड़की चाहते हैं ऐसी कि ज्यादा पढ़ी-लिखी न हो।

प्रेमा : और लड़का?

रामस्वरूप : बताया तो था तुम्हें। बाप सेर है तो लड़का सवा सेर। बी.एस.सी. के बाद लखनऊ में ही तो पढ़ता है, मेडिकल कालेज में। कहता है कि शादी का सवाल दूसरा है, तालीम का दूसरा। क्या करूँ मजबूरी है। मतलब अपना है वरना इन लड़कों और इनके बापों को ऐसी कोरी-कोरी सुनाता कि ये भी…


रतन : (जो अब तक दरवाज़े के पास चुपचाप खड़ा हुआ था, जल्दी-जल्दी) बाबू जी, बाबू जी!

रामस्वरूप : किया हैं ?

रतन : कोई आते हैं।

रामस्वरूप : (दरवाज़े से बाहर झाँककर जल्दी मुँह अंदर करते हुए) अरे, ए प्रेमा, वे आ भी गए। (नौकर पर नज़र पड़ते ही) अरे, तू यहीं खड़ा है, बेवकूफ़। गया नहीं मक्खन लाने? …सब चौपट कर दिया। अबे उधर से नहीं, अंदर के दरवाजे से जा (नौकर अंदर आता है) …और तुम जल्दी करो प्रेमा। उमा को समझा देना थोड़ा-सागा देगी। (प्रेमा जल्दी से अंदर की तरफ़ आती है। उसकी धोती ज़मीन पर रखे हुए बाजे से अटक जाती है।)

प्रेमा : उँह। यह बाजा वह नीचे ही रख गया है, कमबख्त।

रामस्वरूप : तुम जाओ, मैं रखे देता हूँ…जल्दी। (प्रेमा जाती है, बाबू रामस्वरूप बाजा उठाकर रखते हैं। किवाड़ों पर दस्तक।)

रामस्वरूप : हँ-हँ-हैं। आइए, आइए…हँ-हँ-हैं।

(बाबू गोपाल प्रसाद और उनके लड़के शंकर का आना। आँखों से लोक चतुराई टपकती है। आवाज़ से मालूम होता है कि काफ़ी अनुभवी और फितरती महाशय हैं। उनका लड़का कुछ खीस निपोरने वाले नौजवानों में से है। आवाज़ पतली है और खिसियाहट भरी। झुकी कमर इनकी खासियत है।)

रामस्वरूप : (अपने दोनों हाथ मलते हुए) हँ-हँ, इधर तशरीफ़ लाइए इधर।

(बाबू गोपाल प्रसाद बैठते हैं, मगर बेंत गिर पडता है।)


रामस्वरूप : यह बेंत!…लाइए मुझे दीजिए। (कोने में रख देते हैं। सब बैठते हैं।) हँ-ह…मकान ढूँढ़ने में तकलीफ़ तो नहीं हुई?

गो. प्रसाद : (खंखार कर) नहीं। ताँगे वाला जानता था।…और फिर हमें तो यहाँ आना ही था। रास्ता मिलता कैसे नहीं?

रामस्वरूप : हँ-हँ-हैं। यह तो आपकी बड़ी मेहरबानी है। मैंने आपको तकलीफ़ तो दी…

गो. प्रसाद : अरे नहीं साहब! जैसा मेरा काम वैसा आपका काम। आखिर लड़के की शादी तो करनी ही है। बल्कि यों कहिए कि मैंने आपके लिए खासी परेशानी कर दी!

रामस्वरूप : हँ-हैं-हैं! यह लीजिए, आप तो मुझे काँटों में घसीटने लगे। हम तो आपके-हँ-हँ-सेवक ही हैं-ह-हँ। (थोड़ी देर बाद लड़के की ओर मुखातिब होकर) और कहिए, शंकर बाबू, कितने दिनों की छुट्टियाँ हैं?

शंकर : जी, कालिज की तो छुट्टियाँ नहीं हैं। ‘वीक-एण्ड‘ में चला आया था।

रामस्वरूप : आपके कोर्स खत्म होने में तो अब सालभर रहा होगा?

शंकर : जी, यही कोई साल दो साल।

रामस्वरूप : साल दो साल?

शंकर : हँ-हँ-हँ!…जी, एकाध साल का ‘मार्जिन‘ रखता हूँ…


गो. प्रसाद : बात यह है साहब कि यह शंकर एक साल बीमार हो गया था। क्या बताएँ, इन लोगों को इसी उम्र में सारी बीमारियाँ सताती हैं। एक हमारा ज़माना था कि स्कूल से आकर दर्जनों कचौड़ियाँ उडा जाते थे, मगर फिर जो खाना खाने बैठते तो वैसी-की-वैसी ही भूख!

रामस्वरूप : कचौड़ियाँ भी तो उस ज़माने में पैसे की दो आती थीं।

गो. प्रसाद : जनाब, यह हाल था कि चार पैसे में ढेर-सी बालाई आती थी। और अकेले दो आने की हज़म करने की ताकत थी, अकेले! और अब तो बहुतेरे खेल वगैरह भी होते हैं स्कूल में। तब न कोई वॉली-बॉल जानता था, न टेनिस न बैडमिंटन। बस कभी हॉकी या क्रिकेट कुछ लोग खेला करते थे। मगर मजाल कि कोई कह जाए कि यह लड़का कमज़ोर है।

(शंकर और रामस्वरूप खीसें निपोरते हैं।)

रामस्वरूप : जी हाँ, जी हाँ, उस ज़माने की बात ही दूसरी थी…हँ-हँ!

गो. प्रसाद : (जोशीली आवाज़ में) और पढ़ाई का यह हाल था कि एक बार कुर्सी पर बैठे कि बारह घंटे की ‘सिटिंग‘ हो गई, बारह घंटे! जनाब, मैं सच कहता हूँ कि उस जमाने का मैट्रिक भी वह अंग्रेज़ी लिखता था फ़र्राटे की, कि आजकल के एम.ए. भी मुकाबिला नहीं कर सकते।

रामस्वरूप : जी हाँ, जी हाँ! यह तो है ही।

गो. प्रसाद : माफ़ कीजिएगा बाबू रामस्वरूप, उस ज़माने की जब याद आती है, अपने को जब्त करना मुश्किल हो जाता है! रामस्वरूप : हँ-ह-हँ!..जी हाँ वह तो रंगीन ज़माना था, रंगीन ज़माना। हँ-हँ-हँ!

(शंकर भी ही-हीं करता है।)

गो. प्रसाद : (एक साथ अपनी आवाज़ और तरीका बदलते हुए) अच्छा, तो साहब, ‘बिज़नेस‘ की बातचीत हो जाए।

रामस्वरूप : (चौंककर) बिज़नेस? बिज़…(समझकर) ओह…अच्छा, अच्छा। लेकिन ज़रा नाश्ता तो कर लीजिए।

(उठते हैं।)

गो. प्रसाद : यह सब आप क्या तकल्लुफ़ करते हैं!

रामस्वरूप : हँ-हँ-हँ! तकल्लुफ़ किस बात का? हँ हँ! यह तो मेरी बड़ी तकदीर है कि आप मेरे यहाँ तशरीफ़ लाए। वरना मैं किस काबिल हूँ। हँ-हँ!…माफ़ कीजिएगा ज़रा। अभी हाज़िर हुआ।

(अंदर जाते हैं।)

गो. प्रसाद : (थोड़ी देर बाद दबी आवाज़ में) आदमी तो भला है। मकान-वकान से हैसियत भी बुरी नहीं मालूम होती। पता चले, लड़की कैसी है।

शंकर : जी…

(कुछ खखारकर इधर-उधर देखता है।)

गो. प्रसाद : क्यों, क्या हुआ? शंकर कुछ नहीं।

गो. प्रसाद : झुककर क्यों बैठते हो? ब्याह तय करने आए हो, कमर सीधी करके बैठो। तुम्हारे दोस्त ठीक कहते हैं कि शंकर की ‘बैकबोन‘…

(इतने में बाबू रामस्वरूप आते हैं, हाथ में चाय की ट्रे लिए हुए। मेज़ पर रख देते हैं)

गो. प्रसाद : आखिर आप माने नहीं।

रामस्वरूप : (चाय प्याले में डालते हुए) हँ-हँ-हँ! आपको विलायती चाय पसंद है या हिंदुस्तानी?

गो. प्रसाद : नहीं-नहीं साहब, मुझे आधा दूध और आधी चाय दीजिए। और ज़रा चीनी ज्यादा डालिएगा। मुझे तो भई यह नया फ़ैशन पसंद नहीं। एक तो वैसे ही चाय में पानी काफ़ी होता है, और फिर चीनी भी नाम के लिए डाली जाए तो ज़ायका क्या रहेगा?

रामस्वरूप : हैं-हैं, कहते तो आप सही है।

(प्याला पकड़ाते हैं।)

शंकर : (खंखारकर) सुना है, सरकार अब ज़्यादा चीनी लेने वालों पर ‘टैक्स‘ लगाएगी।

गो. प्रसाद : (चाय पीते हुए) हूँ। सरकार जो चाहे सो कर ले, पर अगर आमदनी करनी है तो सरकार को बस एक ही टैक्स लगाना चाहिए।

रामस्वरूप : (शंकर को प्याला पकड़ाते हुए) वह क्या?

गो. प्रसाद : खूबसूरती पर टैक्स! (रामस्वरूप और शंकर हँस पड़ते हैं) मज़ाक नहीं साहब, यह ऐसा टैक्स है जनाब कि देने वाले चँ भी न करेंगे। बस शर्त यह है कि हर एक औरत पर यह छोड़ दिया जाए कि वह अपनी खूबसूरती के ‘स्टैंडर्ड‘ के माफ़िक अपने ऊपर टैक्स तय कर ले। फिर देखिए, सरकार की कैसी आमदनी बढ़ती है।

रामस्वरूप : (ज़ोर से हँसते हुए) वाह-वाह! खूब सोचा आपने! वाकई आजकल यह खूबसूरती का सवाल भी बेढब हो गया है। हम लोगों के ज़माने में तो यह कभी उठता भी न था। (तश्तरी गोपाल प्रसाद की तरफ़ बढ़ाते हैं) लीजिए।

गो. प्रसाद : (समोसा उठाते हुए) कभी नहीं साहब, कभी नहीं।

रामस्वरूप : (शंकर की तरफ़ मुखातिब होकर) आपका क्या खयाल है शंकर बाबू?

शंकर : किस मामले में?

रामस्वरूप : यही कि शादी तय करने में खूबसूरती का हिस्सा कितना होना चाहिए।

गो. प्रसाद : (बीच में ही) यह बात दूसरी है बाबू रामस्वरूप, मैंने आपसे पहले भी कहा था, लड़की का खूबसूरत होना निहायत ज़रूरी है। कैसे भी हो, चाहे पाउडर वगैरह लगाए, चाहे वैसे ही। बात यह है कि हम आप मान भी जाएँ, मगर घर की औरतें तो राजी नहीं होतीं। आपकी लड़की तो ठीक है?

रामस्वरूप : जी हाँ, वह तो अभी आप देख लीजिएगा।

गो. प्रसाद : देखना क्या। जब आपसे इतनी बातचीत हो चुकी है, तब तो यह रस्म ही समझिए।

रामस्वरूप : हँ-हँ, यह तो आपका मेरे ऊपर भारी अहसान है। हँ-हँ!

गो. प्रसाद : और जायचा (जन्मपत्र) तो मिल ही गया होगा।

रामस्वरूप : जी, जायचे का मिलना क्या मुश्किल बात है। ठाकुर जी के चरणों में रख दिया। बस, खुद-ब-खुद मिला हुआ समझिए।

गो. प्रसाद : यह ठीक कहा आपने, बिलकुल ठीक (थोड़ी देर रुककर) लेकिन हाँ, यह जो मेरे कानों में भनक पड़ी है, यह तो गलत है न?

रामस्वरूप : (चौंककर) क्या?

गो. प्रसाद : यह पढ़ाई-लिखाई के बारे में!…जी हाँ, साफ़ बात है साहब, हमें ज्यादा पढ़ी-लिखी लड़की नहीं चाहिए। मेम साहब तो रखनी नहीं. कौन भुगतेगा उनके नखरों को। बस हद से हद मैट्रिक पास होनी चाहिए…क्यों शंकर? शंकर जी हाँ, कोई नौकरी तो करानी नहीं।

रामस्वरूप : नौकरी का तो कोई सवाल ही नहीं उठता।

गो. प्रसाद : और क्या साहब! देखिए कुछ लोग मुझसे कहते हैं, कि जब आपने अपने लड़कों को बी.ए., एम.ए. तक पढ़ाया है, तब उनकी बहुएँ भी ग्रेजुएट लीजिए। भला पूछिए इन अक्ल के ठेकेदारों से कि क्या लड़कों की पढ़ाई और लड़कियों की पढ़ाई एक बात है। अरे मर्दो का काम तो है ही पढ़ना और काबिल होना। अगर औरतें भी वही करने लगीं, अंग्रेजी अखबार पढ़ने लगी और ‘पालिटिक्स‘ वगैरह पर बहस करने लगीं तब तो हो चुकी गृहस्थी। जनाब, मोर के पंख होते हैं मोरनी के नहीं, शेर के बाल होते हैं, शेरनी के नहीं। रामस्वरूप : जी हाँ, और मर्द के दाढ़ी होती है, औरत के नहीं।……………!

(शंकर भी हँसता है, मगर गोपाल प्रसाद गंभीर हो जाते हैं।)

गो. प्रसाद : हाँ, हाँ। वह भी सही है। कहने का मतलब यह है कि कुछ बातें दुनिया में ऐसी हैं जो सिर्फ़ मर्दो के लिए हैं और ऊँची तालीम भी ऐसी चीजों में से एक है।

रामस्वरूप : (शंकर से) चाय और लीजिए।

शंकर : धन्यवाद। पी चुका।। रामस्वरूप : (गोपाल प्रसाद से) आप?

गो. प्रसाद : बस साहब, अब तो खत्म ही कीजिए।

रामस्वरूप : आपने तो कुछ खाया ही नहीं। चाय के साथ ‘टोस्ट‘ नहीं थे। क्या बताएँ, वह मक्खन…

गो. प्रसाद : नाश्ता ही तो करना था साहब, कोई पेट तो भरना था नहीं। और फिर टोस्ट-वोस्ट मैं खाता भी नहीं।

रामस्वरूप : हँ…हँ। (मेज़ को एक तरफ़ सरका देते हैं। फिर अंदर के दरवाज़े की तरफ़ मुँह कर ज़रा ज़ोर से) अरे, ज़रा पान भिजवा देना…! …सिगरेट मँगवाऊँ?

गो. प्रसाद : जी नहीं!

(पान की तश्तरी हाथों में लिए उमा आती है। सादगी के कपड़े। गर्दन झुकी हुई। बाबू गोपाल प्रसाद आँखें गड़ाकर और शंकर आँखें छिपाकर उसे ताक रहे हैं।)

रामस्वरूप : …हॅ…हॅ…यही, हँ…हैं, आपकी लड़की है। लाओ बेटी पान मुझे दो। (उमा पान की तश्तरी अपने पिता को देती है। उस समय उसका चेहरा ऊपर को उठ जाता है। और नाक पर रखा हुआ सोने की रिम वाला चश्मा दीखता है। बाप-बेटे चौंक उठते हैं।)

(गोपाल प्रसाद और शंकर-एक साथ) चश्मा!

रामस्वरूप : (जरा सकपकाकर) जी, वह तो…वह…पिछले महीने में इसकी आँखें दुखनी आ गई थीं, सो कुछ दिनों के लिए चश्मा लगाना पड़ रहा है।

गो. प्रसाद : पढ़ाई-वढ़ाई की वजह से तो नहीं है कुछ?

रामस्वरूप : नहीं साहब, वह तो मैंने अर्ज़ किया न।

गो. प्रसाद : हूँ। (संतुष्ट होकर कुछ कोमल स्वर में) बैठो बेटी।

रामस्वरूप : वहाँ बैठ जाओ उमा, उस तख्त पर, अपने बाजे-वाजे के पास।

(उमा बैठती है।)

गो. प्रसाद : चाल में तो कुछ खराबी है नहीं। चेहरे पर भी छवि है।… हाँ, कुछ गाना-बजाना सीखा है?

रामस्वरूप : जी हाँ, सितार भी, और बाजा भी। सुनाओ तो उमा एकाध गीत सितार के साथ। (उमा सितार उठाती है। थोड़ी देर बाद मीरा का मशहूर गीत ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई‘ गाना शुरू कर देती है। स्वर से ज़ाहिर है कि गाने का अच्छा ज्ञान है। उसके स्वर में तल्लीनता आ जाती है, यहाँ तक कि उसका मस्तक उठ जाता है। उसकी आँखें शंकर की झेंपती-सी आँखों से मिल जाती हैं और वह गाते-गाते एक साथ रुक जाती है।)

रामस्वरूप : क्यों, क्या हुआ? गाने को पूरा करो उमा।

गो. प्रसाद : नहीं-नहीं साहब, काफ़ी है। लड़की आपकी अच्छा गाती है।

(उमा सितार रखकर अंदर जाने को उठती है।)

गो. प्रसाद : अभी ठहरो, बेटी।

रामस्वरूप : थोड़ा और बैठी रहो, उमा! (उमा बैठती है।)

गो. प्रसाद : (उमा से) तो तुमने पेंटिंग वेंटिंग भी…

उमा : (चुप)

रामस्वरूप : हाँ, वह तो मैं आपको बताना भूल ही गया। यह जो तसवीर टंगी हुई है, कुत्ते वाली, इसी ने खींची है। और वह उस दीवार पर भी।

गो. प्रसाद : हूँ! यह तो बहुत अच्छा है। और सिलाई वगैरह?

रामस्वरूप : सिलाई तो सारे घर की इसी के ज़िम्मे रहती है, यहाँ तक कि मेरी कमीजें भी। हँ…हॅ…हैं।

गो. प्रसाद : ठीक।…लेकिन, हाँ बेटी, तुमने कुछ इनाम-विनाम भी जीते हैं? (उमा चुप। रामस्वरूप इशारे के लिए खाँसते हैं। लेकिन उमा चुप है उसी तरह गर्दन झुकाए। गोपाल प्रसाद अधीर हो उठते हैं और रामस्वरूप सकपकाते हैं।)

रामस्वरूप : जवाब दो, उमा। (गोपाल प्रसाद से) हैं-हैं, ज़रा शरमाती है, इनाम तो इसने…

गो. प्रसाद : (जरा रूखी आवाज़ में) ज़रा इसे भी तो मुँह खोलना चाहिए।

रामस्वरूप : उमा, देखो, आप क्या कह रहे हैं। जवाब दो न।

उमा : (हलकी लेकिन मज़बूत आवाज़ में) क्या जवाब दूं बाबू जी! जब कुर्सी-मेज़ बिकती है तब दुकानदार कुर्सी- मेज़ से कुछ नहीं पूछता, सिर्फ खरीदार को दिखला देता है। पसंद आ गई तो अच्छा है, वरना…

रामस्वरूप : (चौंककर खड़े हो जाते हैं) उमा, उमा!

उमा : अब मुझे कह लेने दीजिए बाबूजी!…ये जो महाशय मेरे खरीदार बनकर आए हैं, इनसे ज़रा पूछिए कि क्या लड़कियों के दिल नहीं होता? क्या उनके चोट नहीं लगती? क्या बेबस भेड़-बकरियाँ हैं, जिन्हें कसाई अच्छी तरह देख-भालकर…?

गो. प्रसाद : (ताव में आकर) बाबू रामस्वरूप, आपने मेरी इज़्ज़त उतारने के लिए मुझे यहाँ बुलाया था?

उमा : (तेज़ आवाज़ में) जी हाँ, और हमारी बेइज्जती नहीं होती जो आप इतनी देर से नाप-तोल कर रहे हैं? और ज़रा अपने इन साहबजादे से पूछिए कि अभी पिछली फरवरी में ये लड़कियों के होस्टल के इर्द-गिर्द क्यों घूम रहे थे, और वहाँ से कैसे भगाए गए थे!

शंकर : बाबू जी, चलिए।

गो. प्रसाद : लड़कियों के होस्टल में?…क्या तुम कालेज में पढ़ी हो?

(रामस्वरूप चुप!)

उमा : जी हाँ, कालेज में पढ़ी हूँ। मैंने बी.ए. पास किया है। कोई पाप नहीं किया, कोई चोरी नहीं की, और न आपके पुत्र की तरह ताक-झाँक कर कायरता दिखाई है। मुझे अपनी इज़्ज़त, अपने मान का खयाल तो है। लेकिन इनसे पूछिए कि ये किस तरह नौकरानी के पैरों पड़कर अपना मुँह छिपाकर भागे थे।

रामस्वरूप : उमा, उमा?

गो. प्रसाद : (खड़े होकर गुस्से में) बस हो चुका। बाबू रामस्वरूप, आपने मेरे साथ दगा किया। आपकी लड़की बी.ए. पास है और आपने मुझसे कहा था कि सिर्फ़ मैट्रिक तक पढ़ी है। लाइए…मेरी छड़ी कहाँ है? मैं चलता हूँ (बेंत ढूँढ़कर उठाते हैं।) बी.ए. पास? उफ़्फ़ोह! गज़ब हो जाता! झूठ का भी कुछ ठिकाना है। आओ बेटे, चलो…

(दरवाज़े की ओर बढ़ते हैं।)

उमा : जी हाँ, जाइए, ज़रूर चले जाइए। लेकिन घर जाकर जरा यह पता लगाइएगा कि आपके लाड़ले बेटे के रीढ़ की हड्डी भी है या नहीं-यानी बैकबोन, बैकबोन! (बाबू गोपाल प्रसाद के चेहरे पर बेबसी का गुस्सा है और उनके लड़के के रूलासापन। दोनों बाहर चले जाते हैं। बाबू रामस्वरूप कुर्सी पर धम से बैठ जाते हैं। उमा सहसा चुप हो जाती है। प्रेमा का घबराहट की हालत में आना।)

प्रेमा : उमा, उमा…रो रही है!

(यह सुनकर रामस्वरूप खड़े होते हैं। रतन आता है।)

रतन : बाबू जी, मक्खन…

(सब रतन की तरफ़ देखते हैं और परदा गिरता है।)


'मेरे संग की औरतें ' पाठ की अध्ययन सामग्री पढ़ने के लिए क्लिक करें 




कार्य पत्रक 




openclasses presents 9th study material of all chapters of NCERT-CBSE books. This 9th class study material pdf includes all types of questions and answers in simple language. Students can read, listen and revise 9 class study material anytime from here. In this platform HOTs and LOTs are included in 9th class study material. High-quality class 9 study material with simple language and excellent understanding is presented in a different way by openclasses. study for class 9 before class 10th becomes very important. The skill and efficiency required in the 10th class start to be formed from class 9 study, so smart and hard work is required from 9th class itself.

जय हिन्द 
--------------


Post a Comment

0 Comments