matrik chhand kya hai
जिन छंदों में पद्य की रचना मात्राओं की गणना, लघु तथा गुरु (दीर्घ) , गति तथा यति के आधार पर की जाती है उनको मात्रिक छन्द कहते हैं। साधारण भाषा में बताया जाए तो मात्राओं की गणना के आधार पर जिन छन्दों को लिखा जाता है वह मात्रिक छन्द कहलाते हैं।
मात्रिक छन्द को तीन प्रकार से विभजित किया गया है -
- सम मात्रिक छंद
- अर्द्ध सम मात्रिक छंद
- विषम मात्रिक छंद
चौपाई
यह मात्रिक सम छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ होती है। चरण के अन्त में जगण (।ऽ।) और तगण (ऽऽ।) का आना वर्जित है। तुक पहले चरण की दूसरे से और तीसरे की चौथे से मिलती है। यति प्रत्येक चरण के अन्त में होती है। उदाहरणार्थ-
नित नूतन मंगल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं।।
बड़े भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुनगन गावन लागे ।।
गुरु पद रज मृदु मंजुल मंजन। नयन अमिय दृग दोष विभंजन।।
तेहि करि विमल विवेक विलोचन। बरनउँ रामचरित भवमोचन ।।
रोला
यह मात्रिक सम छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होती हैं। इसके प्रत्येक चरण में ११ और १३ मात्राओं पर यति ही अधिक प्रचलित है। प्रत्येक चरण के अन्त में दो गुरु या दो लघु वर्ण होते हैं। दो-दो चरणों में तुक आवश्यक है। उदाहरणार्थ-
जो जगहित पर प्राण निछावर है कर पाता।
जिसका तन है किसी लोकहित में लग जाता ।।
हरिगीतिका
यह मात्रिक सम छन्द है। इस छन्द के प्रत्येक चरण में २८ मात्राएँ होती हैं। १६ और १२ मात्राओं पर यति तथा अन्त में लघु-गुरु का प्रयोग ही अधिक प्रचलित है। उदाहरणार्थ-
कहती हुई यों उत्तरा के नेत्र जल से भर गए।
हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए ।।
बरवै
यह मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। इस छन्द के विषम चरणों (प्रथम और तृतीय) में १२ और सम चरणों (दूसरे और चौथे) में ७ मात्राएँ होती है। सम चरणों के अन्त में जगण या तगण आने से इस छन्द में मिठास बढ़ती है। यति प्रत्येक चरण के अन्त में होती है। जैसे-
वाम अंग शिव शोभित, शिवा उदार।
सरद सुवारिद में जनु, तड़ित बिहार ।।
दोहा
यह मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। इस छन्द के विषम चरणों (प्रथम और तृतीय) में १३ मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय और चतुर्थ) में ११ मात्राएँ होती है। यति चरण के अन्त में होती है। विषम चरणों के आदि में जगण नहीं होना चाहिए। सम चरणों के अन्त में लघु होना चाहिए। तुक सम चरणों में होनी चाहिए। जैसे-
श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधार।
बरनौ रघुवर विमल जस, जो दायक फल चार ।।
सोरठा
यह मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। यह दोहे का उल्टा, अर्थात दोहे के द्वितीय चरण को प्रथम और प्रथम को द्वितीय तथा तृतीय को चतुर्थ और चतुर्थ को तृतीय कर देने से बन जाता है। इस छन्द के विषम चरणों में ११ मात्राएँ और सम चरणों में १३ मात्राएँ होती है। तुक प्रथम और तृतीय चरणों में होती है। उदाहरणार्थ-
निज मन मुकुर सुधार, श्री गुरु चरण सरोज रज।
जो दायक फल चार, बरनौ रघुबर विमल जस ।।
वीर
इसके प्रत्येक चरण में ३१ मात्राएँ होती हैं। १६, १५ पर यति पड़ती है। अंत में गुरु-लघु का विधान है। 'वीर' को ही 'आल्हा' कहते हैं।
सुमिरि भवानी जगदंबा को, श्री शारद के चरन मनाय।
आदि सरस्वती तुमको ध्यावौं, माता कंठ विराजौ आय।।
ज्योति बखानौं जगदंबा कै, जिनकी कला बरनि ना जाय।
शरच्चंद्र सम आनन राजै, अति छबि अंग-अंग रहि जाय।।
उल्लाला
इसके पहले और तीसरे चरणों में १५-१५ तथा दूसरे और चौथे चरणों में १३-१३ मात्राएँ होती हैं। यथा-
हे शरणदायिनी देवि तू, करती सबका त्राण है।
हे मातृभूमि ! संतान हम, तू जननी, तू प्राण है।।
कुंडलिया
यह 'संयुक्तमात्रिक छंद' है। इसका निर्माण दो मात्रिक छंदों-दोहा और रोला-के योग से होता है। पहले एक दोहा रख लें और उसके बाद दोहा के चौथे चरण से आरंभ कर यदि एक रोला रख दिया जाए तो वही कुंडलिया छंद बन जाता है। जिस शब्द से कुंडलिया प्रारंभ हो, समाप्ति में भी वही शब्द रहना चाहिए- यह नियम है, किंतु इधर इस नियम का पालन कुछ लोग छोड़ चुके हैं। दोहा के प्रथम और द्वितीय चरणों में (१३ + ११) १४ मात्राएँ होती हैं तथा द्वितीय और चतुर्थ चरणों (१३ + ११) में भी १४ मात्राएँ होती हैं। इस प्रकार दोहे के चार चरण कुंडलिया के दो चरण बन जाते हैं। रोला सममात्रिक छंद हैं जिसके प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होती हैं। प्रारंभ के दो चरणों में १३ और ११ मात्राएँ पर यति होती है तथा अंत के चार चरणों में ११ और १३ मात्राओं पर।
हिन्दी में गिरिधर कविराय कुंडलियों के लिए विशेष प्रसिद्ध हैं। वैसे तुलसी, केशव आदि ने भी कुछ कुंडलियाँ लिखी हैं। उदाहरण देखें-
दौलत पाय न कीजिए, सपने में अभिमान।
चंचल जल दिन चारि कौ, ठाउँ न रहत निदान।।
ठाउँ न रहत निदान, जियन जग में जस लीजै।
मीठे बचन सुनाय, विनय सबही की कीजै।।
कह गिरिधर कविराय, अरे यह सब घर तौलत।
पाहुन निसिदिन चारि, रहत सब ही के दौलत।।
छप्पय
यह संयुक्तमात्रिक छंद है। इसका निर्माण मात्रिक छंदों- रोला और उल्लाला- के योग से होता है। पहले रोला को रख लें जिसके प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होंगी। इसके बाद एक उल्लाला को रखें। उल्लाला के प्रथम तथा द्वितीय चरणों में (१५ + १३) १८ मात्राएँ होंगी तथा तृतीय और चतुर्थ चरणों में भी (१५ + १३) २८ मात्राएँ होंगी। रोला के चार चरण तथा उल्लाला के चार चरण- जो यहाँ दो चरण हो गये हैं- मिलकर छप्पय के छह चरण अर्थात छह पाद या पाँव हो जाएँगे। प्रथम चार चरणों में ११, १३ तथा अंत के दो चरणों में १४, १३ मात्राओं पर यति होगी।
जिस प्रकार तुलसी की चौपाइयाँ, बिहारी के दोहे, रसखान के सवैये, पद्माकर के कवित्त तथा गिरिधर कविराय की कुंडलिया प्रसिद्ध हैं; उसी प्रकार नाभादास के छप्पय प्रसिद्ध हैं। उदाहरण के लिए मैथलीशरण गुप्त का एक छप्पय देखें-
जिसकी रज में लोट-पोट कर बड़े हुए हैं।
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुए हैं।।
परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये।
जिसके कारण धूल-भरे हीरे कहलाये।।
हम खेले कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातृभूमि ! तुमको निरख मग्न क्यों न हों मोद में।।
सम मात्रिक छंद
जिन छन्दों के प्रत्येक चरणों मे समान मात्राओं का प्रयोग किया जाता है उन छन्दों के सम मात्रिक छंद कहते हैं।
जैसे –
अहीर (11 मात्रा)
मानव (14 मात्रा)
तोमर (12 मात्रा)
राधिका (22 मात्रा)
पीयूषवर्ष, सुमेरु (दोनों 19 मात्रा)
चौपाई (सभी 16 मात्रा), अरिल्ल, पद्धरि/पद्धटिका
रूपमाला, रोला, दिक्पाल (सभी 24 मात्रा)
अर्द्ध सम मात्रिक छंद
ऐसे छन्द जिनके पहले तथा तीसरे चरणों मे और दूसरे तथा चौथे चरणों मे समान मात्राएँ पाई जाती है। उन छन्दों को अर्द्ध सम मात्रिक छंद कहते हैं।
जैसे –
बरवै
सोरठा (दोहा का उल्टा)
दोहा (विषम- 13, सम- 11)
उल्लाला (विषम-15, सम-13)।
विषम मात्रिक छंद
काव्य में प्रयोग होने वाले ऐसे छन्द जिनके चरणों मे अधिक समानता नही पाई जाती है। उन छन्दों को विषम मात्रिक छंद कहते हैं।
जैसे –
कुण्डलिया (दोहा + रोला)
छप्पय (रोला + उल्लाला)।
प्रमुख मात्रिक छंद
दोहा छंद
दोहा छन्द के पहले और तीसरे चरण में तेरह – तेरह मात्राएँ तथा दूसरे और चौथे चरण में ग्यारह – ग्यारह मात्राएँ होती हैं। दोहा छन्द के दूसरे और चौथे चरण के अंत मे एक लघु स्वर अवश्य पाया जाता है।
उदाहरण –
“कारज धीरे होत है, काहे होत अधीर।
समय पाय तरुवर फरै, केतक सींचो नीर ।।”
उपर्युक्त दिए गए छन्द के पहले और तीसरे चरण में 13 -13 मात्राएँ है तथा दूसरे और चौथे चरण में 11 – 11 मात्राएँ है तथा चरण के अंत मे लघु स्वर हैं अतः यह दोहा छन्द का उदाहरण है।
सोरठा छंद
इसके पहले तथा तीसरे चरण में 11- 11 मात्राएँ तथा दूसरे और चौथे चरण में 13- 13 मात्राएँ होती हैं। यह छन्द दोहा छन्द का विपरीत होता है। इसके पहले तथा तीसरे चरण के अंत मे एक लघु स्वर पाया जाता है।
उदाहरण –
जो सुमिरत सिधि होय, गननायक करिबर बदन।
करहु अनुग्रह सोय, बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥
उपर्युक्त दिए गए काव्य के पहले और तीसरे चरण में 11 -11 तथा दूसरे और चौथे चरण में 13 -13 मात्राएँ है अतः यह सोरठा छन्द का उदाहरण है।
रोला छंद
इसमे 4 चरण होते हैं, रोला छन्द के दोनों चरणों को मिलाकर 24 मात्राएँ होती हैं तथा इसके चरण के अंत मे दो लघु और दो दीर्घ होते हैं।
उदाहरण –
यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै।
पर-स्वारथ के काज, शीश आगे धर दीजै॥
दिए गए इस काव्य में दोनों चरणों को मिलाकर 24 मात्राएँ है तथा चरण के अंत मे दो दीर्घ और दो लघु हैं।
गीतिका छंद
यह एक मात्रिक छन्द है इसमें चार चरण होते हैं तथा प्रत्येक चरण में 14 तथा 12 के क्रम में 26 मात्राएँ होती हैं। चरण के अंतिम में लघु तथा दीर्घ स्वर होते हैं।
उदाहरण –
“हे प्रभो आनंददाता ज्ञान हमको दीजिये।
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये।”
इस काव्य के प्रत्येक चरण में 14 तथा 12 के क्रम में 26 मात्राएँ है इसलिए यह गीतिका छन्द का उदाहरण है।
चौपाई छंद
यह भी मात्रिक छन्द का प्रकार है इस छन्द के प्रत्येक चरण में 16 – 16 मात्राएँ होती है तथा चरण के अंत मे दो गुरु ( दीर्घ ) होते हैं।
उदाहरण –
बंदउँ गुरु पद पदुम परागा ।
सुरुचि सुबास सरस अनुराग॥
अमिय मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू॥
उपर्युक्त काव्य के प्रत्येक चरण में 16 मात्राएँ है तथा प्रत्येक चरण के अंत मे दो गुरु ( दीर्घ ) उपस्थित हैं।
कुंडलियाँ छंद
कुंडलियाँ छंद एक विषम मात्रिक छन्द होता है इस छन्द का निर्माण रोला छन्द तथा दोहा छन्द के योग से होता है। सर्वप्रथम इसमे दोहा छन्द के दो चरण होते है उसके बाद इसमे रोला छन्द का प्रयोग किया जाता है जिससे कुंडलियाँ छंद का निर्माण होता है।
जय हिन्द : जय हिंदी
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