chhand kise kahate hain
छंद किसे कहते है ?
छंद की परिभाषा और भेद उदहारण सहित
वर्णों या मात्राओं की नियमित संख्या के विन्यास से यदि आह्लाद पैदा हो, तो यह विन्यास छंद कहा जाता है।
अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रा गणना तथा यति-गति से सम्बद्ध विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्यरचना 'छन्द' कहलाती है।
महर्षि पाणिनी के अनुसार जो आह्लादित करे, प्रसन्न करे, वह छंद है |
छंदोबद्ध रचना केवल आह्लादकारिणी ही नहीं होती, वरन् वह चिरस्थायिनी भी होती है। जो रचना छंद में बँधी नहीं है उसे हम याद नहीं रख पाते और जिसे याद नहीं रख पाते, उसका नष्ट हो जाना स्वाभाविक ही है। इन परिभाषाओं के अतिरिक्त सुगमता के लिए यह समझ लेना चाहिए कि जो पदरचना अक्षर, अक्षरों की गणना, क्रम, मात्रा, मात्रा की गणना, यति-गति आदि नियमों से नियोजित हो, वह छंदोबद्ध कहलाती है।
छंद शब्द 'छद्' धातु से बना है जिसका अर्थ है 'आह्लादित करना', 'खुश करना।' 'छंद का दूसरा नाम पिंगल भी है। इसका कारण यह है कि छंद-शास्त्र के आदि प्रणेता पिंगल ऋषि थे।
'छन्द' की प्रथम चर्चा ऋग्वेद में हुई है। छन्द पद्य की रचना का मानक है और इसी के अनुसार पद्य की सृष्टि होती है। पद्य रचना का समुचित ज्ञान 'छन्दशास्त्र' का अध्ययन किये बिना नहीं होता। छन्द हृदय की सौन्दर्य भावना जागृत करते हैं । छन्दोबद्ध कथन में एक विचित्र प्रकार का आह्लाद रहता है, जो अपने आप ही जगता है। तुक छन्द का प्राण है- यही हमारी आनन्द-भावना को प्रेरित करता है । गद्य में शुष्कता रहती है और छन्द में भाव की सरसता। यही कारण है कि गद्य की अपेक्षा छन्दोबद्ध पद्य हमें अधिक भाता है।
- गद्य का नियामक - व्याकरण - शुष्क
- कविता का नियामक- छन्दशास्त्र - सरस
सौन्दर्य चेतना के अतिरिक्त छन्द का प्रभाव स्थायी होता है। इसमें वह शक्ति है, जो गद्य में नहीं होती। छन्दोबद्ध रचना का हृदय पर सीधा प्रभाव पड़ता है। गद्य की बातें हवा में उड़ जाती है, लेकिन छन्दों में कही गयी कोई बात हमारे हृदय पर अमिट छाप छोड़ती है। मानवीय भावों को आकृष्ट करने और झंकृत करने की अदभुत क्षमता छन्दों में होती है। छन्दाबद्ध रचना में स्थायित्व अधिक है। सहृदय अपनी स्मृति में ऐसी रचनाओं को दीर्घकाल तक सँजोकर रखा जा सकता है। इन्हीं कारणों से हिन्दी के कवियों ने छन्दों को इतनी सहृदयता से अपनाया। अतः छन्द अनावश्यक और निराधार कदापि नहीं हैं। इनकी भी अपनी उपयोगिता और महत्ता है। हिन्दी में छन्दशास्त्र का जितना विकास हुआ, उतना किसी भी देशी-विदेशी भाषा में नहीं हुआ।
छन्द के अंग
छन्द के निम्नलिखित अंग है-
- चरण /पद /पाद
- वर्ण और मात्रा
- संख्या क्रम और गण
- लघु और गुरु
- गति
- यति /विराम
- तुक
चरण /पद /पाद
छंद के प्रायः 4 भाग होते हैं। इनमें से प्रत्येक को 'चरण' कहते हैं।
छंद के चतुर्थाश (चतुर्थ भाग) को चरण कहते हैं।
कुछ छंदों में चरण तो चार होते है लेकिन वे लिखे दो ही पंक्तियों में जाते हैं,
जैसे- दोहा, सोरठा आदि। ऐसे छंद की प्रत्येक को 'दल' कहते हैं।
हिन्दी में कुछ छंद छः-छः पंक्तियों (दलों) में लिखे जाते हैं। ऐसे छंद दो छंदों के योग से बनते है,
जैसे-
- कुण्डलिया (दोहा +रोला)
- छप्पय (रोला +उल्लाला)
चरण दो प्रकार के होते हैं -
- सम चरण - द्वितीय व चतुर्थ चरण
- विषम चरण - प्रथम व तृतीय चरण
वर्ण और मात्रा
वर्ण/अक्षर
varn kaise bante hain
एक स्वर वाली ध्वनि को वर्ण कहते हैं, चाहे वह स्वर ह्रस्व हो या दीर्घ।
जिस ध्वनि में स्वर नहीं हो उसे वर्ण नहीं माना जाता। | जैसे -
हलन्त शब्द राजन् का 'न्',
संयुक्ताक्षर का पहला अक्षर- कृष्ण का 'ष्'
यहाँ न्', 'ष्' वर्ण नहीं हैं |
वर्ण को ही अक्षर कहते हैं।
'वर्णिक छंद' में चाहे ह्रस्व वर्ण हो या दीर्घ वर्ण - वह एक ही वर्ण माना जाता है; जैसे- राम, रामा, रम, रमा इन चारों शब्दों में दो-दो ही वर्ण हैं।
वर्ण दो प्रकार के होते हैं-
(i) ह्रस्व स्वर वाले वर्ण (ह्रस्व वर्ण):
अ, इ, उ, ऋ;
क, कि, कु, कृ
(ii)दीर्घ स्वर वाले वर्ण (दीर्घ वर्ण) :
आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ;
का, की, कू, के, कै, को, कौ
मात्रा
marta kise kahte hain
किसी वर्ण या ध्वनि के उच्चारण-काल को मात्रा कहते हैं।
किसी वर्ण के उच्चारण में जो अवधि लगती है, उसे मात्रा कहते हैं।
- एक मात्रा- ह्रस्व वर्ण के उच्चारण में लगने वाला समय
- दो मात्रा- दीर्घ वर्ण के उच्चारण में लगने वाला समय
मात्रा दो प्रकार की होती हैं -
ह्रस्व : अ, इ, उ, ऋ
दीर्घ : आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ
वर्ण और मात्रा की गणना
वर्ण की गणना
ह्रस्व स्वर वाले वर्ण (ह्रस्व वर्ण)- एकवर्णिक
- अ, इ, उ, ऋ;
क, कि, कु, कृ
दीर्घ स्वर वाले वर्ण (दीर्घ वर्ण)- एकवर्णिक
- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ;
का, की, कू, के, कै, को, कौ
मात्रा की गणना
matra kaise gine
ह्रस्व स्वर- एकमात्रिक
- अ, इ, उ, ऋ
दीर्घ स्वर- द्विमात्रिक
- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ
वर्णो और मात्राओं की गिनती में स्थूल भेद यही है कि वर्ण 'सस्वर अक्षर' को और मात्रा 'सिर्फ स्वर' को कहते है।
वर्ण और मात्रा में अंतर-
varn aur matra me antar
वर्ण में ह्रस्व और दीर्घ रहने पर वर्ण-गणना में कोई अंतर नहीं पड़ता है, किंतु मात्रा-गणना में ह्रस्व-दीर्घ से बहुत अंतर पड़ जाता है। उदाहरण -
- भरत - तीन वर्ण और तीन मात्राएँ
- भारती - तीन वर्ण हैं किन्तु पाँच मात्राएँ
संख्या क्रम और गण
sankhya kise kahte hain
वर्णों और मात्राओं की सामान्य गणना को संख्या कहते हैं,
kram kise kahte hain
लघुवर्ण और गुरुवर्ण के नियोजन को क्रम कहते हैं ।
gan kise kahte hain
छंद-शास्त्र में तीन मात्रिक वर्णों के समुदाय को गण कहते है।
वर्णिक छंद में वर्णों की संख्या नियत रहती है वर्णों का लघु-गुरु-क्रम भी नियत रहता है।
मात्राओं और वर्णों की 'संख्या' और 'क्रम' की सुविधा के लिए तीन वर्णों का एक-एक गण मान लिया गया है। इन गणों के अनुसार मात्राओं का क्रम वर्णिक छन्दों में होता है, अतः इन्हें 'वर्णिक गण' भी कहते है। इन गणों की संख्या आठ है। इनके ही उलटफेर से छन्दों की रचना होती है। इन गणों के नाम, लक्षण, चिह्न और उदाहरण इस प्रकार है-
1.
गण - यगण
वर्ण क्रम - आदि लघु, मध्य गुरु, अन्त गुरु
चिह्न - ।ऽऽ
उदाहरण - बहाना
प्रभाव - शुभ
2.
गण - मगण
वर्ण क्रम - आदि, मध्य, अन्त गुरु
चिह्न - ऽऽऽ
उदाहरण - आजादी
प्रभाव - शुभ
3.
गण - तगण
वर्ण क्रम - आदि गुरु, मध्य गुरु, अन्त लघु
चिह्न - ऽऽ।
उदाहरण - बाजार
प्रभाव - अशुभ
4.
गण - रगण
वर्ण क्रम - आदि गुरु, मध्य लघु, अन्त गुरु
चिह्न - ऽ।ऽ
उदाहरण - नीरजा
प्रभाव - अशुभ
5.
गण - जगण
वर्ण क्रम - आदि लघु, मध्य गुरु, अन्त लघु
चिह्न - ।ऽ।
उदाहरण -मकान
प्रभाव - अशुभ
6.
गण - भगण
वर्ण क्रम - आदि गुरु, मध्य लघु, अन्त लघु
चिह्न - ऽ।।
उदाहरण -नीरद
प्रभाव - शुभ
7.
गण - नगण
वर्ण क्रम - आदि, मध्य, अन्त लघु
चिह्न - ।।।
उदाहरण -कमल
प्रभाव - शुभ
8.
गण - सगण
वर्ण क्रम - आदि लघु, मध्य लघु, अन्त गुरु
चिह्न - ।।ऽ
उदाहरण -वसुधा
प्रभाव - अशुभ
काव्य या छन्द के आदि में 'अगण' अर्थात 'अशुभ गण' नहीं पड़ना चाहिए। शायद उच्चारण कठिन अर्थात उच्चारण या लय में दग्ध होने के कारण ही कुछ गुणों को 'अशुभ' कहा गया है। गणों को सुविधापूर्वक याद रखने के लिए एक सूत्र बना लिया गया है- यमाताराजभानसलगा: । इस सूत्र में प्रथम आठ वर्णों में आठ गणों के नाम आ गये है। अन्तिम दो वर्ण 'ल' और 'ग' छन्दशास्त्र में 'दशाक्षर' कहलाते हैं। जिस गण का स्वरूप जानना हो, उस गण के आद्यक्षर और उससे आगे दो अक्षरों को इस सूत्र से ले लेना होता है। जैसे- 'तगण' का स्वरूप जानना हो तो इस सूत्र का 'ता' और उससे आगे के दो अक्षर 'रा ज'='ताराज', ( ऽऽ।) लेकर 'तगण' का लघु-गुरु जाना जा सकता है कि 'तगण' में गुरु+गुरु+लघु, इस क्रम से तीन वर्ण होते है। यहाँ यह स्मरणीय है कि 'गण' का विचार केवल वर्णवृत्त में होता है, मात्रिक छन्द इस बन्धन से मुक्त है।
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