sawle sapno ki yaad class 9 | साँवले सपनों की याद

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पाठ-4

साँवले सपनों की याद 


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 ध्वनि प्रस्तुति 





sawle sapno ki yaad summary

साँवले सपनों की याद पाठ का सारांश 


 सारांश 



‘साँवले सपनों की याद’ (Sawle Sapno ki Yaad) पाठ में एक व्यक्ति का चित्र खींचा गया है। लेखक कहते हैं कि सुनहरे रंग के पक्षियों के पंखों पर साँवले सपनों का एक हुजूम सवार रहता है और वह पक्षी मौत की खामोश वादी की तरफ चला जा रहा है। उस झुंड में सबसे आगे सालिम अली चल रहे हैं। वे सैलानियों की तरह एक अंतहीन यात्रा की ओर चल पड़े हैं। इस बार का सफर उनका अंतिम सफर है। इस बार उन्हें कोई भी वापस बुला नहीं सकता क्योंकि वे अब एक पक्षी की तरह मौत की गोद में जा बसे हैं।

सालिम अली इस बात से बहुत ही दुखी तथा नाराज़ थे कि लोग पक्षियों को आदमी की तरह देखते हैं। लोग पहाड़ों, झरनों तथा जंगलों को भी आदमी की नज़र से देखते हैं। यह गलत है क्योंकि कोई भी आदमी पक्षियों की मधुर आवाज़ सुनकर रोमांचित नहीं हो सकता है।


लेखक कहते हैं कि वृंदावन में भगवान कृष्ण ने मालूम नहीं कब रासलीला की थी, कब ग्वाल-बालों के साथ खेल खेले थे? कब मक्खन खाया था? कब बाँसुरी बजाई थी? कब वन-विहार किया था? किंतु आज जब हम इस यमुना के काले पानी को देखते हैं तो ऐसा लगता है कि अभी-अभी भगवान श्रीकृष्ण बाँसुरी बजाते हुए आ जाएँगे और सारे वातावरण में संगीत का जादू छा जाएगा। वृंदावन से कृष्ण की बाँसुरी का जादू कभी खत्म ही नहीं होता।


सालिम अली ने बहुत भ्रमण किया था तथा उनकी उम्र सौ वर्ष की हो रही थी। अतः उनका शरीर दुर्बल हो गया था। मुख्यतः वे यात्रा करते-करते बहुत थक चुके थे, परंतु इस उम्र में भी उनके अंदर पक्षियों को खोजने का जुनून सवार था। दूरबीन उनकी आँखों पर या गरदन में पड़ी रहती थी तथा उनकी नज़र दूर-दूर तक फैले आकाश में पक्षियों को ढूँढ़ती रहती थी। उन्हें प्रकृति में एक हँसता-खेलता सुंदर-सलोना संसार दिखाई देता था।


इस सुंदर रहस्यमयी दुनिया को उन्होंने बहुत ही परिश्रम से बनाया था। इसके बनाने में उनकी पत्नी तहमीना का भी योगदान था। सालिम अली केरल की साइलेंट वैली को रेगिस्तान के झोंकों से बचाना चाहते थे। इसलिए वे एक बार पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह से भी मिले थे। चौधरी चरण सिंह गाँव में जन्मे हुए थे और गाँव की मिट्टी से जुड़े हुए थे। अतः वे सालिम अली की पर्यावरण की सुरक्षा संबंधी बातें सुनकर भावुक हो गए थे। आज ये दोनों व्यक्ति नहीं हैं। अब देखते हैं कि हिमालय के घने जंगलों में बर्फ़ से ढकी चोटियों तथा लेह – लद्दाख की बर्फीली ज़मीनों पर रहने वाले पक्षियों की चिंता कौन करता है ?



सालिम अली ने अपनी आत्मकथा का नाम रखा था ‘फॉल ऑफ ए स्पैरो’। लेखक को याद है कि डी.एच. लॉरेंस की मृत्यु के बाद जब लोगों ने उनकी पत्नी फ्रीडा लॉरेंस से अपने पति के बारे में लिखने का अनुरोध् किया तो वे बोली थीं कि मेरे लिए लॉरेंस के बारे में लिखना असंभव-सा है, मुझसे ज्यादा तो उनके बारे में छत पर बैठने वाली गौरैया जानती है।


बचपन में अन्य बच्चों के समान सालिम अली अपनी एयरगन से खेल रहे थे। खेलते समय उनकी एयरगन से एक चिड़िया घायल होकर गिर पड़ी थी। उसी दिन से सालिम अली के हृदय में पक्षियों के प्रति दया का भाव जाग उठा और वे पक्षियों की खोज तथा उनकी रक्षा के उपायों में लग गए। प्राकृतिक रहस्यों को जानने के लिए निरंतर प्रयास करते रहे। इसके लिए उन्होंने बड़े-से-बड़े तथा कठिन-से-कठिन कार्य किए।


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 Q&A  



प्रश्न  1: किस घटना ने सालिम अली के जीवन की दिशा को बदल दिया और उन्हें पक्षी प्रेमी बना दिया?

उत्तर : बचपन में एक बार मामा की दी हुई एयरगन से सालिम अली ने एक गौरैया का शिकार किया। गौरैया घायल होकर गिर पड़ी। इस घटना ने सालिम अली के जीवन की दिशा को बदल दिया। वे गौरैया की देखभाल, सुरक्षा और खोजबीन में जुट गए। उसके बाद उनकी रुचि पूरे पक्षी-संसार की ओर मुड़ गई। वे पक्षी-प्रेमी बन गए। मामा से गौरैया के बारे में जानकारी माँगनी चाही तो मामा ने उन्हें बाम्बे नैचुरल हिस्ट्री सोसायटी [बी.एन.एच.एस] जाने के लिए कहा। बी.एन.एच.एस से इन्हें गौरैया की पूरी जानकारी मिली। उसी समय से सालिम अली के मन में पक्षियों के बारे में जानने की इतनी उत्सुकता जगी कि उन्होंने पक्षी विज्ञान को ही अपना करियर बना लिया।


प्रश्न 2: सालिम अली ने पूर्व प्रधानमंत्री के सामने पर्यावरण से संबंधित किन संभावित खतरों का चित्र खींचा होगा कि जिससे उनकी आँखें नम हो गई थीं?

उत्तर : एक दिन सालिम अली प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह से मिले। उस समय केरल पर रेगिस्तानी हवा के झोंको का खतरा मंडरा रहा था। सालिम अली ने पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के सामने रेगिस्तानी हवा के गरम झोकों और उसके दुष्प्रभावों का उल्लेख किया था। वहाँ का पर्यावरण दूषित हो रहा था। यदि इस हवा से केरल की साइलेंट वैली को नहीं बचाया गया तो उसके नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा। प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को वातावरण की सुरक्षा का ध्यान था। पर्यावरण के दूषित होने के खतरे के बारे में सोचकर और प्रकृति के प्रति इस तरह का प्रेम और चिंता देखकर उनकी आँखें नम हो गईं थी।

 

प्रश्न  3: लॉरेंस की पत्नी फ्रीडा ने ऐसा क्यों कहा होगा कि “मेरी छत पर बैठने वाली गोरैया लॉरेंस के बारे में ढेर सारी बातें जानती है?”

उत्तर : लॉरेंस का व्यक्तित्व बिल्कुल साधारण तथा इतना खुला-खुला सा था कि उनके बारे में किसी से कुछ छिपा नहीं था। लॉरेंस की पत्नी फ्रीडा जानती थी कि लॉरेंस को गौरैया से बहुत प्रेम था। वे अपना काफी समय गौरैया के साथ बिताते थे। गौरैया भी उनके साथ अंतरंग साथी जैसा व्यवहार करती थी। इसलिए फ्रीडा ने उनके इसी पक्षी-प्रेम को उद्घाटित करने के लिए कहा कि लॉरेन्स के बारे में एक गौरैया भी ढ़ेर सारी बातें बता सकती है।


प्रश्न  4: आशय स्पष्ट कीजिए –

(क) वो लॉरेंस की तरह, नैसर्गिक जिंदगी का प्रतिरूप बन गए थे।

उत्तर : लॉरेंस का जीवन बहुत सीधा-सादा था, प्रकृति के प्रति उनके मन में जिज्ञासा थी। सालिम अली का व्यक्तित्व भी लॉरेंस की तरह ही सुलझा तथा सरल था।

(ख) कोई अपने जिस्म की हरारत और दिल की धड़कन देकर भी उसे लौटाना चाहे तो वह पक्षी अपने सपनों के गीत दोबारा कैसे गा सकेगा!

उत्तर : यहाँ लेखक का आशय है कि मृत व्यक्ति को कोई जीवित नहीं कर सकता। हम चाहे कुछ भी कर लें पर उसमें कोई हरकत नहीं ला सकते। मृत्यु ऐसा सत्य है जिसके प्रभाव से मनुष्य सांसारिकता से दूर होकर चिर निद्रा और विश्राम प्राप्त कर लेता है। उसका हँसना-गाना, चलना-फिरना सब बंद हो जाता है। मौत की गोद में विश्राम कर रहे सालिम अली की भी यही स्थिति थी। अब उन्हें किसी तरह से पहले जैसी अवस्था में नहीं लाया जा सकता था।


(ग) सालिम अली प्रकृति की दुनिया में एक टापू बनने की बजाए अथाह सागर बनकर उभरे थे।

उत्तर : टापू बंधन तथा सीमा का प्रतीक है और सागर की कोई सीमा नहीं होती है। उसी प्रकार सालिम अली भी बंधन मुक्त होकर अपनी खोज करते थे। उनके खोज की कोई सीमा नहीं थी।वे प्रकृति और पक्षियों के बारे में थोड़ी-सी जानकारी से संतुष्ट होने वाले नहीं थे। वे इनके बारे में असीमित ज्ञान प्राप्त करके अथाह सागर-सा बन जाना चाहते थे। 




  
प्रश्न 5: इस पाठ के आधार पर लेखक की भाषा-शैली की चार विशेषताएँ बताइए।

उत्तर : लेखक की भाषा-शैली की विशेषताएँ—

1. मिश्रित शब्दावली का प्रयोग-

लेखक ने भाषा में हिंदी के साथ-साथ कहीं-कहीं उर्दू तथा कहीं-कहीं अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग भी किया है। 'साँवले सपनों की याद' पाठ में उर्दू, तद्भव और संस्कृत शब्दों का सम्मिश्रण भी है।

उर्दू शब्द
जिंदगी, परिंदा, खूबसूरत, हुजूम, ख़ामोश, सैलानी, सफ़र, तमाम, आखिरी, माहौल, खुद।

संस्कृत शब्द
संभव, अंतहीन, पक्षी, वर्ष, इतिहास, वाटिका, विश्राम, संगीतमय, प्रतिरूप।

संस्कृत-उर्दू शब्द
अंतहीन सफर, प्रकृति की नज़र, दुनिया संगीतमय, जिंदगी को प्रतिरूप।


 
2. जटिल वाक्यों का प्रयोग

जाबिर हुसैन की वाक्य-रचना बंकिम और जटिल है। वे सरल-सीधे वाक्यों का प्रयोग नहीं करते। कलात्मकता उनके हर वाक्य में है। इनकी शैली चित्रात्मक है। पाठ को पढ़ते हुए इसकी घटनाओं का चित्र उभर कर हमारे सामने आता है।
उदाहरण के लिए यह वाक्य देखिए -

‘सुनहरे परिंदों के खूबसूरत पंखों पर सवार साँवले सपनों का एक हुजूम मौत की खामोश वादी की तरफ अग्रसर है।’ पता नहीं, इतिहास में कब कृष्ण ने वृंदावन में रासलीला रची थी और शोख गोपियों को अपनी शरारतों का निशाना बनाया था।

 3. अलंकारों का प्रयोग-

जाबिर हुसैन अलंकारों की भाषा में लिखते हैं। उपमा, रूपक, उनके प्रिय अलंकार हैं। 
उदाहरण के लिए ये वाक्य देखिए -
अब तो वो उस वन-पक्षी की तरह प्रकृति में विलीन हो रहे हैं। (उपमा)
रोमांच का सोता फूटता महसूस कर सकता है? (रूपक)

4. भावानुरूप भाषा-

ज़ाबिर हुसैन भाव के अनुरूप शब्दों और वाक्यों की प्रकृति बदल देते हैं। 
कभी वे छोटे-छोटे वाक्य प्रयोग करते हैं. 
जैसे -
आज सालिम अली नहीं हैं। चौधरी साहब भी नहीं हैं। 

कभी वे उत्तेजना लाने के लिए प्रश्न शैली का प्रयोग करते हैं और जटिल वाक्य बनाते चले जाते हैं। 
जैसे-
कौन बचा है, जो अब सोंधी माटी पर उगी फसलों के बीच एक नए भारत की नींव रखने का संकल्प लेगा?
कौन बचा है, जो अब हिमालय और लद्दाख की बर्फीली जमीनों पर जीने वाले पक्षियों की वकालत करेगा?

अपने मनोभावों को प्रस्तुत करने के लिए लेखक ने अभिव्यक्ति शैली का सहारा लिया है। कुल मिलाकर भाषा अत्यंत सरल ,सहज और भावानुगामिनी है ।

प्रश्न 6: इस पाठ में लेखक ने सालिम अली के व्यक्तित्व का जो चित्र खींचा है उसे अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर : सालिम अली प्रसिद्ध पक्षी-विज्ञानी होने के साथ-साथ प्रकृति-प्रेमी थे। प्रकृति प्रेमी सालिम अली एक विचारशील व्यक्ति थे। प्रकृति तथा पक्षियों के प्रति उनके मन में कभी न खत्म होने वाली जिज्ञासा थी। उनका जीवन काफी रोमांचकारी था तथा उनका स्वभाव भ्रमणशील था। कभी-भी किसी-भी वक्त वे पक्षियों के बारे में पता करने निकल जाते थे।

 एक बार बचपन में उनकी एअरगन से घायल होकर नीले कंठवाली गौरैया गिरी थी। उसकी हिफाजत और उससे संबंधित जानकारी पाने के लिए उन्होंने जो प्रयास किया, उससे पक्षियों के बारे में उठी जिज्ञासा ने उन्हें पक्षी-प्रेमी बना दिया। वे दूर-दराज घूम-घूमकर पक्षियों के बारे में जानकारी एकत्र करते रहे हैं और उनकी सुरक्षा के लिए चिंतित रहे। वे केरल की साइलेंट वैली को रेगिस्तानी हवा के झोकों से बचाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह से भी मिले। वे प्रकृति की दुनिया के अथाह सागर बन गए थे।

प्रश्न  7: ‘साँवले सपनों की याद’ शीर्षक की सार्थकता पर टिप्पणी कीजिए।

उत्तर : यह रचना लेखक जाबिर हुसैन द्वारा अपने मित्र सालिम अली की याद में लिखा गया संस्मरण है। ‘साँवले सपनों की याद’ एक रहस्य से भरा हुआ शीर्षक है। इसे पढ़कर पाठक जिज्ञासा से आतुर हो जाता है कि कैसे सपने? किसके सपने? कौन-से सपने? ये सपने साँवले क्यों हैं? कौन इन सपनों की याद में आतुर है? आदि। 
पाठ को पढ़ते हुए इसका शीर्षक “साँवले सपनों की याद” अत्यंत सार्थक प्रतीत होता है। लेखक का मन अपने मित्र से बिछड़ कर दु:खी हो जाता है, अत: वे उनकी यादों को ही अपने जीने का सहारा बना लेते हैं।

 ‘साँवले सपने’ मनमोहक इच्छाओं के प्रतीक हैं। ये सपने प्रसिद्ध पक्षी-प्रेमी सालिम अली से संबंधित हैं। सालिम अली जीवन-भर सुनहरे पक्षियों की दुनिया में खोए रहे। वे उनकी सुरक्षा और खोज के सपनों में खोए रहे। ये सपने हर किसी को नहीं आते। हर कोई पक्षी-प्रेम में इतना नहीं डूब सकता। इसलिए आज जब सालिम अली नहीं रहे तो लेखक को उन साँवले सपनों की याद आती है जो सालिम अली की आँखों में बसते थे। यह शीर्षक सार्थक तो है किंतु गहरा रहस्यात्मक है। चंदन की तरह घिस-घिसकर इसके अर्थ तथा प्रभाव तक पहुँचा जा सकता है।



रचना और अभिव्यक्ति

प्रश्न 1 : प्रस्तुत पाठ सालिम अली की पर्यावरण के प्रति चिंता को भी व्यक्त करता है। पर्यावरण को बचाने के लिए आप कैसे योगदान दे सकते हैं?

उत्तर : ‘साँवले सपनों की याद’ सालिम अली ने पर्यावरण के प्रति अपनी चिंता प्रकट की है। उन्होंने केरल की साइलेंट वादी को रेगिस्तानी हवा के झोंको से बचाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री से मुलाकात की और उसे बचाने का अनुरोध किया। इस तरह अपने पर्यावरण को बचाने के लिए हम भी विभिन्न रूपों में अपना योगदान दे सकते हैं; जैसे-

  • वायु को शुद्ध रखने के लिए हमें पेड़-पौधे लगाने चाहिए। अपने आस-पास पड़ी खाली भूमि पर अधिकाधिक वृक्षारोपण जरुरी है . साथ-ही-साथ पेड़-पौधों को कटने से बचाने के लिए लोगों में जागरूकता पैदा करें। लोगों को पेड़-पौधों की महत्ता बताएँ।
  • हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे आसपास का स्थान साफ़-सुथरा रहे। इसके लिए हमें कूड़ेदान का प्रयोग करना चाहिए।
  • जल को प्रदूषण से बचाना है । हम जल स्रोतों को न दूषित करें और न लोगों को दूषित करने दें। फैक्ट्रियों से निकले अपशिष्ट पदार्थों एवं विषैले जल को जलस्रोतों में न मिलने दें।
  • तेज़ आवाज़ को रोककर हम ध्वनि प्रदूषण होने से रोक सकते हैं।
  • प्लास्टिक जैव-अनिम्नीकरणीय होता है . इससे बनी वस्तुओं का प्रयोग कम से कम करें। विभिन्न रूपों में बार-बार प्रयोग की जा सकने वाली वस्तुओं का प्रयोग करें।
  • इधर-उधर कूड़ा-करकट न फेंकें तथा ऐसा करने से दूसरों को भी मना करें। सूखी पत्तियों और कूड़े को जलाने से बचें तथा इस विषय पर जागरूकता फैलाएं ।


 लेखक के बारे में 


हिंदी और उर्दू दोनों ही भाषाओं की पत्रकारिता में किया गया उनका काम काफी महत्वपूर्ण रहा है। हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी– इन तीनों ही भाषाओं पर उनका समान अधिकार है। वे हिंदी उर्दू में समान रूप से लिखते रहे हैं। उर्दू में अपने सर्जनात्मक लेखन के लिए उन्हें साहित्य अकादेमी का सम्मान मिला। हिंदी की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं छपी हैं। उन्होंने कहानी, कविता, उपन्यास और शोध माध्यम में भी काम किया है। 


हिंदी में प्रकाशित उनकी महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं : 

‘आलोम लाजावा’ ‘डोला बीबी का मजार’ (कहानी संग्रह), ‘एक नदी रेत भरी’, ‘रेत रेत लहू’, ‘आईना किस काम का’, ‘दो चेहरे वाली एक नदी’, ‘हिकायत-ए-शब’, ‘रेत पर गिरता है ओस’, ‘उदास कैनवस’, ‘मेघ को पानी’, ‘आधे चांद का नौहा’, ‘ओक में बूंदें’, ‘कातर आंखों ने देखा’ (कविता संग्रह), ‘ये शहर लगै मोहे बन’ (उपन्यास), ‘ध्वनिमत काफी नहीं है’, ‘अतीत का चेहरा’, ‘जो आगे हैं’ (डायरी), ‘लोगां’ (संस्मरण)  और ‘बिहार की पिछड़ी मुस्लिम आबादियां’ (विश्लेषण)। 


हिंदी में उनके लेखन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है उनका डायरी लेखन। मध्य बिहार और टाल क्षेत्र के रक्तरंजित यथार्थ, वहां के गांवों के सामंती उत्पीड़न को उनकी डायरियां दर्ज करती हैं। वे हमें बेचैन करती हैं। उसमें पुलिस और सामंती गठजोड़ के अत्याचारों का जघन्यतम रूप पेश किया है। उन्होंने आजादी के आंदोलन में शामिल रहे अनेक बहुजन नायकों को जिन्हें पूरी तरह भूला दिया गया था चर्चाओं के केंद्र में लाया। खासकर बतख मियां और पीर अली खां जैसे नायक उन्हीं के लेखन के बाद व्यापक चर्चाओं के केंद्र में आये। 


हिंदी में ‘साक्ष्य’ और संवाद’ जैसी पत्रिका उनके संपादन में लगभग एक दशक तक लगातार निकलती रही। इन पत्रिकाओं के माध्यम से अपने समय समाज के जिन व्यापक सवालों से उन्होंने मुठभेड़ किया है, उसका मूल्यांकन होना अभी शेष है। उनके द्वारा संपादित ‘साक्ष्य’ अपने विषय केंद्रित विशेषांकों के कारण हिंदी पाठकों के बीच लोकप्रिय बेहद लोकप्रिय साबित हुई। उन्होंने साक्ष्य के डेढ़ दर्जन से ज्यादा अंक निकाले और सब के सब अलग-अलग विशेषाक के रूप में। उन्होंने बिहार विधान परिषद के बाद ‘दोआबा’ नामक पत्रिका की शुरूआत की, जिसके अबतक 37 अंक प्रकाशित हो चुके हैं। इस पत्रिका के माध्यम से भी उन्होंने पिछले डेढ़ दशकों से हिंदी साहित्य के व्यापक सवालों को अपने तरीके से संबोधित किया है। 

उर्दू मरकज की साहित्यिक पत्रिका ’तर्जुमान’ और ’उर्दूनामा’ के संपादक के रूप में उर्दू साहित्य में भी वे खासा लोकप्रिय रहे हैं। ‘दस्तावेज’ और ‘खबरनामा’ पत्रिका के संपादक के रूप में उन्होंने उर्दू समाज में खासी लोकप्रियता अर्जित की। इस भाषा में उन्होंने चालीस से भी अधिक दुर्लभ ग्रंथों का संपादन, पाठ निर्धारण एवं प्रकाशन किया है। अंग्रेजी में भी उन्होंने मौलिक सृजनात्मक लेखन किया है। उन्होंने हिन्दी और उर्दू की प्रगति के लिए विधान परिषद के माध्यम से जो कारगर हस्तक्षेप किया है, वह स्थाई महत्व का है। फणीश्वरनाथ रेणु के नाम पर पटना में जिस हिन्दी भवन को उन्होंने मूर्त किया, वह हिंदी समाज को उनकी अनुपम देन कही जाएगी। 



Work- sheet


साँवले सपनों की याद 

जाबिर हुसैन 


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सुनहरे परिंदों के खूबसूरत पंखों पर सवार साँवले सपनों का एक हुजूम मौत की खामोश वादी की तरफ़ अग्रसर है। कोई रोक-टोक सके, कहाँ संभव है।


इस हुजूम में आगे-आगे चल रहे हैं, सालिम अली। अपने कंधों पर, सैलानियों की तरह अपने अंतहीन सफ़र का बोझ उठाए। लेकिन यह सफ़र पिछले तमाम सफ़रों से भिन्न है। भीड़-भाड़ की जिंदगी और तनाव के माहौल से सालिम अली का यह आखिरी पलायन है। अब तो वो उस वन-पक्षी की तरह प्रकृति में विलीन हो रहे हैं, जो जिंदगी का आखिरी गीत गाने के बाद मौत की गोद में जा बसा हो। कोई अपने जिस्म की हरारत और दिल की धड़कन देकर भी उसे लौटाना चाहे तो वह पक्षी अपने सपनों के गीत दोबारा कैसे गा सकेगा!


मुझे नहीं लगता, कोई इस सोए हुए पक्षी को जगाना चाहेगा। वर्षों पूर्व, खुद सालिम अली ने कहा था कि लोग पक्षियों को आदमी की नजर से देखना चाहते हैं। यह उनकी भूल है, ठीक उसी तरह, जैसे जंगलों और पहाड़ों, झरनों और आबशारों को वो प्रकृति की नज़र से नहीं, आदमी की नज़र से देखने को उत्सुक रहते हैं। भला कोई आदमी अपने कानों से पक्षियों की आवाज़ का मधुर संगीत सुनकर अपने भीतर रोमांच का सोता फूटता महसूस कर सकता है?

एहसास की ऐसी ही एक ऊबड़-खाबड़ जमीन पर जन्मे मिथक का नाम है, सालिम अली।

पता नहीं, इतिहास में कब कृष्ण ने वृंदावन में रासलीला रची थी और शोख गोपियों को अपनी शरारतों का निशाना बनाया था। कब माखन भरे भाँड़े फोड़े थे और दूध-छाली से अपने मुँह भरे थे। कब वाटिका में, छोटे-छोटे किंतु घने पेड़ों की छाँह में विश्राम किया था। कब दिल की धड़कनों को एकदम से तेज़ करने वाले अंदाज़ में बंसी बजाई थी। और, पता नहीं, कब वृंदावन की पूरी दुनिया संगीतमय हो गई थी। पता नहीं, यह सब कब हुआ था। लेकिन कोई आज भी वृंदावन जाए तो नदी का साँवला पानी उसे पूरे घटनाक्रम की याद दिला देगा। हर सुबह, सूरज निकलने से पहले, जब पतली गलियों से उत्साह भरी भीड़ नदी की ओर बढ़ती है, तो लगता है जैसे उस भीड़ को चीरकर अचानक कोई सामने आएगा और बंसी की आवाज़ पर सब किसी के कदम थम जाएँगे। हर शाम सूरज ढलने से पहले, जब वाटिका का माली सैलानियों को हिदायत देगा तो लगता है जैसे बस कुछ ही क्षणों में वो कहीं से आ टपकेगा और संगीत का जादू वाटिका के भरे-पूरे माहौल पर छा जाएगा। वृंदावन कभी कृष्ण की बाँसुरी के जादू से खाली हुआ है क्या!


मिथकों की दुनिया में इस सवाल का जवाब तलाश करने से पहले एक नज़र कमजोर काया वाले उस व्यक्ति पर डाली जाए जिसे हम सालिम अली के नाम से जानते हैं। उम्र को शती तक पहुँचने में थोड़े ही दिन तो बच रहे थे। संभव है, लंबी यात्राओं की थकान ने उनके शरीर को कमजोर कर दिया हो, और कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी उनकी मौत का कारण बनी हो। लेकिन अंतिम समय तक मौत उनकी आँखों से वह रोशनी छीनने में सफल नहीं हुई जो पक्षियों की तलाश और उनकी हिफ़ाज़त के प्रति समर्पित थी। सालिम अली की आँखों पर चढ़ी दूरबीन उनकी मौत के बाद ही तो उतरी थी।


उन जैसा ‘बर्ड वाचर’ शायद ही कोई हुआ हो। लेकिन एकांत क्षणों में सालिम अली बिना दूरबीन भी देखे गए हैं। दूर क्षितिज तक फैली ज़मीन और झुके आसमान को छूने वाली उनकी नजरों में कुछ कुछ वैसा ही जादू था, जो प्रकृति को अपने घेरे में बाँध लेता है। सालिम अली उन लोगों में थे जो प्रकृति के प्रभाव में आने की बजाए प्रकृति को अपने प्रभाव में लाने के कायल होते हैं। उनके लिए प्रकृति में हर तरफ़ एक हँसती-खेलती रहस्य भरी दुनिया पसरी थी। यह दुनिया उन्होंने बड़ी मेहनत से अपने लिए गढ़ी थी। इसके गढ़ने में उनकी जीवन-साथी तहमीना ने काफ़ी मदद पहुँचाई थी। तहमीना स्कूल के दिनों में उनकी सहपाठी रही थीं।


अपने लंबे रोमांचकारी जीवन में ढेर सारे अनुभवों के मालिक सालिम अली एक दिन केरल की ‘साइलेंट वैली’ को रेगिस्तानी हवा के झोंकों से बचाने का अनुरोध लेकर चौधरी चरण सिंह से मिले थे। वे प्रधानमंत्री थे। चौधरी साहब गाँव की मिट्टी पर पड़ने वाली पानी की पहली बूंद का असर जानने वाले नेता थे। पर्यावरण के संभावित खतरों का जो चित्र सालिम अली ने उनके सामने रखा, उसने उनकी आँखें नम कर दी थीं।


आज सालिम अली नहीं हैं। चौधरी साहब भी नहीं हैं। कौन बचा है, जो अब सोंधी माटी पर उगी फसलों के बीच एक नए भारत की नींव रखने का संकल्प लेगा? कौन बचा है, जो अब हिमालय और लद्दाख की बरफ़ीली जमीनों पर जीने वाले पक्षियों की वकालत करेगा? सालिम अली ने अपनी आत्मकथा का नाम रखा था ‘फॉल ऑफ ए स्पैरो’ (Fall of a Sparrow)। मुझे याद आ गया, डी एच लॉरेंस की मौत के बाद लोगों ने उनकी पत्नी फ्रीडा लॉरेंस से अनुरोध किया कि वह अपने पति के बारे में कुछ लिखे। फ्रीडा चाहती तो ढेर सारी बातें लॉरेंस के बारे में लिख सकती थी। लेकिन उसने कहा- मेरे लिए लॉरेंस के बारे में कुछ लिखना असंभव-सा है। मुझे महसूस होता है, मेरी छत पर बैठने वाली गोरैया लॉरेंस के बारे में ढेर सारी बातें जानती है। मुझसे भी ज्यादा जानती है।


वो सचमुच इतना खुला-खुला और सादा-दिल आदमी था। मुमकिन है, लॉरेंस मेरी रगों में, मेरी हड़ियों में समाया हो। लेकिन मेरे लिए कितना कठिन है, उसके बारे में अपने अनुभवों को शब्दों का जामा पहनाना। मुझे यकीन है, मेरी छत पर बैठी गौरैया उसके बारे में, और हम दोनों ही के बारे में, मुझसे ज्यादा जानकारी रखती है।


जटिल प्राणियों के लिए सालिम अली हमेशा एक पहेली बने रहेंगे। बचपन के दिनों में, उनकी एयरगन से घायल होकर गिरने वाली, नीले कंठ की वह गौरैया सारी जिंदगी उन्हें खोज के नए-नए रास्तों की तरफ़ ले जाती रही। जिंदगी की ऊँचाइयों में उनका विश्वास एक क्षण के लिए भी डिगा नहीं। वो लॉरेंस की तरह, नैसर्गिक जिंदगी का प्रतिरूप बन गये थे।


सालिम अली प्रकृति की दुनिया में एक टापू बनने की बजाए अथाह सागर बनकर उभरे थे। जो लोग उनके भ्रमणशील स्वभाव और उनकी यायावरी से परिचित हैं, उन्हें महसूस होता है कि वो आज भी पक्षियों के सुराग में ही निकले हैं, और बस अभी गले में लंबी दूरबीन लटकाए अपने खोजपूर्ण नतीजों के साथ लौट आएँगे।

जब तक वो नहीं लौटते, क्या उन्हें गया हुआ मान लिया जाए।
मेरी आँखें नम हैं, सालिम अली, तुम लौटोगे ना!

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